अमूर्त-विपक्ष की रामनवमी का सोहर-गीत

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मानेंगे नहीं, मगर सच्चाई यही है कि नरेंद्र भाई मोदी अपने बनाए मकड़जाल में गले-गले तक फंस गए हैं। वे समय की रेत पर अपने कदमों के निशान छोड़ने का इरादा ले कर अहमदाबाद से दिल्ली आए थे। लेकिन अब समय की रेत उनकी मुट्ठी से फिसल-फिसल कर उनके मन की बेताबी बढ़ा रही है। भारतीय जनता पार्टी के भीतर यह सुगबुगाहट दबी ज़ुबानों के छोर पर आने लगी है कि अगले आम चुनाव में पार्टी का बदन आधा रह जाएगा। पितृ-संगठन के मोहन भागवत को भी यह भय विचलित करने लगा है कि देश की भाव-भंगिमा पहले सरीखी नहीं है।

नरेंद्र भाई यह कभी नहीं मानेंगे कि उनके मन की बात सुन-सुन कर सब कभी के उकता गए थे। इस बार उनके मन की बात को पूरे देश ने जिस तरह सिरे से खारिज़ किया, उसने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को झिंझोड़ दिया है। भारतवासी मासूम हैं, मगर वे इतने बच्चे भी नहीं हैं कि महामारी की मार के आंसू पोंछते-पोंछते खिलौनों से खेलने लगें। यशस्वी-से-यशस्वी प्रधानमंत्री भी ऐसे त्रासद दौर में अपने देशवासियों के हाथ में गुड्डे-गुड़िया नहीं पकड़ा सकता। मुझे तो ताज्जुब है कि जनता की नब्ज़ पर जिसकी उंगलियों की ज़रा-सी भी पकड़ हो, वह ऐसा करने की नासमझी कैसे कर सकता है?

इस नासमझी को भी समझने वाले समझ सकते हैं। मगर फिर यह हुआ कि जब नरेंद्र भाई की ‘मन की बात’ पर लाखों लोगों ने नापंसदगी का उलटा-अंगूठा दिखा दिया और धतकारने वाली टिप्पणियों की बौछार हो गई तो पहले तो प्रधानमंत्री-कार्यालय ने पसंद-नापसंद प्रसारण कक्ष को ही लुप्त कर दिया और फिर ऐसा अंतिम इंतज़ाम कर डाला कि अब से प्रधानमंत्री जब भी कोई बात सोशल साइट्स पर प्रसारित करेंगे तो उस पर न तो कोई अपनी पसंद-नापसंद ज़ाहिर कर सकेगा और न ही अपनी राय लिख सकेगा। जिसने भी यह किया, नासमझी नहीं, बेवकूफ़ी की। प्रधानमंत्री को ऐसी जगहंसाई का निशाना बनवा देने वाले को मैं तो जड़-मूर्ख ही कहूंगा।

वे कौन हैं, जिन्होंने नरेंद्र भाई को साढ़े छह बरस में संवाददाताओं से रू-ब-रू नहीं होने दिया? वे कौन हैं, जिन्होंने अपने देसी-परदेसी दौरों में पत्रकारों को साथ ले जाने की परंपरा नरेंद्र भाई से ठप्प कराई? वे कौन हैं, जो प्रश्नकाल-मुक्त संसद सत्र बुलाने की सलाह देते हैं? वे कौन हैं, जो नरेंद्र भाई को मोरपंखी सुल्तान बना रहे हैं? वे कौन हैं, जो नरेंद्र भाई को बीयर ग्रिल्स के साथ जंगल घूमने की सलाह देते हैं? वे कौन हैं, जो नरेेंद्र भाई को ‘अब की बार, ट्रंप सरकार’ में टांग फसाने को प्रेरित करते हैं? वे कौन हैं, जो नरेंद्र भाई को एकालापी और एकलखुरा बना रहे हैं? अगर नरेंद्र भाई यह सब ख़ुद कर रहे हैं तो प्रभु राम उन्हें सुमति दें! अगर वे यह सब किसी नज़ूमी के कहने पर करते हैं तो काल-भैरव उन्हें इन बेतालों से मुक्त करें!

भाजपा-संघ इस अहसास के गुदगुदे गद्दे पर पड़ा हुआ है कि देश में विपक्ष तो है ही नहीं। यह सही भी है कि राजनीतिक विपक्ष की कोई संरचित शक़्ल हमारे सामने नहीं है। कांग्रेस अपने अंतर्विरोधों से जूझ रही है। संघ-विचार से नाइत्तफ़ाकी रखने वाले बाकी सियासी-दल अपनी बौनी आकांक्षाओं को सहलाने में ही दिन गुज़ार रहे हैं। लेकिन इससे क्या होता है? विपक्ष असंगठित क्षेत्र के मज़दूर की तरह बेबस है तो क्या हुआ? जब कोई मुल्क़ अपने रहनुमा के पैदा किए हालात से उकता जाता है तो देशवासी स्वयं विपक्ष बन जाते हैं। भारत इस कगार पर आ कर खड़ा हो गया है। नरेंद्र भाई के कान भले ही इतने संवेदनशील न हों कि इस आहट को सुन सकें, मगर बाकी तमाम अर्थवान लोग इस सुरसुराहट को सुन ही नहीं, गुन भी रहे हैं।

इंद्रप्रस्थ का इंद्र बने आज नरेंद्र भाई का 2302 वां दिन है। चूंकि वे 24 में से 20 घंटे काम करते हैं और उनके अनुयायियों को गर्व है कि उनके हृदय-सम्राट ने एक भी दिन का अवकाश इस बीच नहीं लिया है तो हम मानें कि भारत को इस हाल में पहुंचाने के लिए नरेंद्र भाई ने अपने 46 हज़ार से ज़्यादा कीमती घंटे झौंके हैं। तब जा कर अर्थव्यवस्था आज माइनस 24 प्रतिशत पर पहुंची है। मेरा आकलन कहता है कि यह वित्तीय वर्ष जब ख़त्म हो रहा होगा तो भारत की जीडीपी में क़रीब 75 लाख करोड़ रुपए की कमी आ चुकी होगी। इसका मतलब यह है कि तब देश का सकल घरेलू उत्पाद माइनस 37 फ़ीसदी के आसपास पहुंच चुका होगा। ऐसे में जब आज बेरोज़गारी की दर 45 बरस में सबसे निचले पायदान पर है तो अगले साल का अप्रैल आते-आते उसका क्या हाल होगा?

भारत के मौजूदा हालात को ‘प्रभु की लीला’ बताने वाली वित्त मंत्री देश को यह भी तो बताएं कि इन छह साल में सरकार के सहचर-पूंजीपतियों की आमदनी सात गुनी किस की लीला से हो गई? वे हमें यह भी तो समझाएं कि एक-के-बाद-एक बेचे जा रहे नवरत्न सरकारी उपक्रम किन की गठरियों में कै़द हो रहे हैं? क्या नरेंद्र भाई की प्रतिभाशाली वित्त मंत्री हमें बताएंगी कि भारतीय जीवन बीमा निगम का निजीकरण करने के बाद देश की पंचवर्षीय योजनाओं का क्या होगा? 2022 में ख़त्म होने वाली तेरहवीं पंचवर्षीय योजना में बीमा निगम ने 28 लाख करोड़ रुपए का निवेश किया है। इसके पहले वाली पांच साला योजना में उसने 14 लाख करोड़ रुपए लगाए थे। कोई धन्ना सेठ हाथ आई ऐसी बटेर को अपनी अंकशायिनी बनाएगा या भारतमाता की सेवा में लगाएगा?

जिस भारतीय रेल को अपने सहचर-पूंजीपति दोस्तों के हवाले करने को नरेंद्र भाई की हुकूमत छटपटा रही है, वैसे तो उसकी परिसंपत्तियों की कोई थाह नहीं है, मगर ज़्यादा नहीं तो पांच-सात लाख करोड़ रुपए की तो उसकी ज़मीनें ही देश भर में खाली पड़ी हैं। अगर भारतीय रेल के सारे आधारभूत ढांचे की कीमत लगाई जाए तो वह सौ, दो सौ, पांच सौ लाख करोड़ रुपए तक कुछ भी हो सकती है। जिन विमानतलों से अपने चहेते साहूकारों की गोद-भराई हो रही है, उनकी ज़मीनों और बाकी संरचना की कीमत कितने लाख करोड़ होगी? 2024 के चुनाव आने से पहले ऐसे सारे काम निपटा लेने की बेसब्री को आप-हम अगर अब भी नहीं समझेंगे तो कब समझेंगे?

संरचित सियासी विपक्ष को उसके हाल पर छोड़िए। उसके भरोसे बैठे रहने का समय बीत गया है। यह नागरिक-विपक्ष के गठन का समय है। यह अमूर्त-विपक्ष की रामनवमी पर सोहर गाने का समय है। यह निराकार प्रतिपक्ष की जन्माष्टमी पर गीता-सार गुनगुनाने का समय है। यह व्यक्तिगत संकल्प की घट-स्थापना का समय है। इकाइयां जागेंगी तो दहाइयां झख मार कर साथ चलेंगी। अगर सिर्फ़ इतना हो जाए कि अगले आम-चुनाव ईवीएम-मुक्त हो जाएं तो समझ लीजिए कि सब-कुछ हो गया। आप भले ही एक दिन अपने क़ामयाब होने का उम्मीद भरा गीत गाते रहिए, जनतंत्र को बचाने का जन-आंदोलन ईवीएम के रहते कभी क़ामयाब नहीं होगा। मौजूदा सत्ता के तोते की जान ईवीएम में है। यह संदेह रखने वालों की कमी नहीं है कि उनकी राय तो ईवीएम में ही जाती है, बाहर तो ईवीएम की राय आती है। इसलिए जिस दिन हम ईवीएम का विकल्प अपना लेंगे, सत्ता की राजकुमारी के स्वयंवर का हार स्वयमेव वैकल्पिक गले में डल जाएगा। उस सुबह की अगवानी का पूजन आज से ही शुरू कीजिए।

पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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