चैनलों पर रिया चालीसा का जाप

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भारत में एक नई आर्थिक सभ्यता और एक नई जीवन संस्कृति करवट ले रही है, तब उसके निर्माण में प्रभावी एवं सशक्त भूमिका के लिये जिम्मेदार इलैक्ट्रोनिक एवं प्रिंट मीडिया शायद दिशाहीन है। एक सौ तीस करोड़ की आबादी का यह देश- कोरोना एवं अन्य जटिल समस्याओं से जूझ रहा है, इन समस्याओं एवं अन्य समस्याओं से लड़ते भारत की बहुत सी तस्वीरें बन एवं बिगड़ रही है, तब पिछले लम्बे समय से अभिनेता सुशान्त सिंह राजपूत की मृत्यु को लेकर देश के न्यूज चैनलों में जो ‘प्राइम टाइम युद्ध’ छिड़ा हुआ है एवं प्रिंट मीडिया में बस इसी की चर्चाओं का अंबार लगा है- वह सहज ही दर्शा रहा है कि लोकतंत्र के चैथे पायदान पर कैसे धुंधलकें एवं गैर जिम्मेदार होने के तगमें जड़ रहे हैं। क्या दिखाने एवं छापने के लिये केवल ‘रिया’ ही है? क्या इतनी बड़ी आबादी के देश में यह एक मुद्दा है? सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि खबरों के बाजार में प्रतियोगिता का स्तर किस हद तक गिर गया है। आम आदमी में आशाओं एवं सकारात्मकता का संचार करने के अनेक मुद्दे हैं, नये औद्योगिक परिवेश, नये अर्थतंत्र, नये व्यापार, नये राजनीतिक मूल्यों, नये विचारों, नये इंसानी रिश्तों, नये सामाजिक संगठनों, नये रीति-रिवाजों और नयी जिंदगी को संगठित एवं निर्मित करने की अनेक हवायें एवं आयाम देश में निर्मित हो रहे हैं, लेकिन मीडिया में उनकी चर्चा न होकर केवल सुशांत एवं रिया पर खबरों एवं विचारों का केन्द्रित होना हमारे मीडिया के गुमराह एवं दिग्भ्रमित होने की स्थितियों को ही उजागर कर रहा है।

एक पक्ष सुशान्त मामले की मुख्य आरोपी सुश्री रिया चक्रवर्ती को अपराधी सिद्ध करने पर तुला हुआ है तो दूसरा पक्ष उसे नायिका के रूप मे पेश कर रहा है। दोनों ही पक्ष उत्तेजना को खबर मान बैठे हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि एक बेहद संक्रमित एवं जटिल दौर में मीडिया अपनी रचनात्मक भूमिका निभाने से भाग रहा है? जब मामला न्यायालय में विचाराधीन है एवं सीबीआई जैसी सर्वोच्च एजेन्सी जांच में जुटी है, तब मीडिया क्यों अपनी शक्ति को व्यर्थ गंवा रही है। न्यूज चैनलों में गजब का असन्तुलित युद्ध छिड़ा है। मीडिया ने इस बार अपनी सकारात्मक भूमिका का सही अर्थ ही खो दिया है। यद्यपि बहुत कुछ उसे उपलब्ध हुआ है। कितने ही नए रास्ते बने हैं। फिर भी किन्हीं दृष्टियों से वह भटक रहा है। यह विडम्बनापूर्ण ही है कि जब ‘लोकसभा’ के अध्यक्ष श्री ओम बिरला संसदीय समितियों से कहते हैं कि वे उन विषयों पर विचार न करें जो न्यायालय के विचाराधीन हैं और दूसरी तरफ न्यूज चैनल ऐसे विषय की परत-दर-परत समीक्षा कर रहे हैं? जबकि मीडिया को आत्मनिर्भर भारत की एक ऐसी गाथा लिखने में अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए, जिससे राष्ट्रीय चरित्र बने, राष्ट्र सशक्त हो, न केवल भीतरी परिवेश में बल्कि दुनिया की नजरों में भारत अपनी एक स्वतंत्र हस्ती और पहचान लेकर उपस्थित हो। मीडिया का कार्य लोगों को जागृत, सजग और जागरूक करने का होता है, उसकी बड़ी जिम्मेदारी है राष्ट्र निर्माण में निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह करने की। आम जनता राजनेताओं से अधिक मीडिया पर भरोसा करती रही है, क्योंकि उसी ने आजादी दिलाने में सक्रिय भूमिका निभाई।

उसने बिना किसी राजनीतिक दबाव, जाति, धर्म, भाषा, प्रांत के भेदभाव को सत्य को बल दिया। हमारा मीडिया एक जिम्मेदार मीडिया रहा है मगर अब किसी को अपराधी या पाक-साफ करार देने का हक उसे कैसे मिल सकता है? जबकि पूरा मामला जांच के दायरे में है और न्यायालय में अभी पेश होना है। विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक जांच एजेंसियां अपनी तफ्तीश पूरी करके किसी ठोस नतीजे पर न पहुंचें तब तक मामले से जुड़ा हर व्यक्ति सन्देह के घेरे में रहता है मगर न्यूज चैनलों पर एक तरफ रिया चक्रवर्ती को बेगुनाह साबित करने की कोशिशें हो रही है, तो दूसरी तरफ उन्हें गुनहगार घोषित करने की बात हो रही है। पूरे मामले में हम एक नागरिक के मौलिक अधिकारों की अनदेखी कर रहे हैं। मीडिया परख का एक आइना है, उसको यदि कल्पना के पंख दिये जाए और सच को देखने की आंख दी जाये तो इसकी आसमानी ऊंचाइयां एवं पाताली गहराइयां स्वयं में एक अन्तहीन समीकरण है। हर भारतीय की गहरी चाह है कि सशक्त भारत निर्माण की दृष्टि से जिन मूल्यों एवं मानकों के लिये मीडिया की सुबह हुई थी, उन मूल्यों को मीडिया कितनी सुरक्षा एवं समृद्धि दे पाया है और उन्हें जी पाया है, एक अन्वेषण यात्रा शुरु की जाने की अपेक्षा है। महत्वपूर्ण बात है कि मीडिया अपनी जिम्मेदारियों को अधिक संभाले। व्यक्ति एवं समाज की हर ईकाई तक पहुंच कर उनकी उपलब्धियों, समस्याओं एवं जीवनशैली की समीक्षा करें, लेकिन अपने स्वार्थ या टीआरपी के चक्कर में केवल किसी रिया में न अटकें।

सवाल रिया को अपराधी या निरपराध मानने का नहीं है बल्कि हकीकत की तह तक पहुंचने का है, असलियत निकाल कर बाहर लाने का है मगर न्यूज चैनलों ने इस मामले को अपनी-अपनी नाक का सवाल बना लिया है और वे पक्ष व विपक्ष में धुआंधार विवेचना किये जा रहे हैं। इससे भारत की न्याय एवं जांच व्यवस्था की ही धज्जियां उड़ रही हैं जो कहती है कि केवल कानूनी प्रावधानों से ही किसी भी व्यक्ति को अपराधी घोषित किया जा सकता है। अतः रिया चक्रवर्ती के पक्ष या विपक्ष में अभियान चला कर हम केवल कानून का ही मजाक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जांच एजेंसियों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे सुशान्त मामले के मीडिया प्रचार के मोह से दूर रहें और अपना कार्य पूरी निष्पक्षता के साथ करें और दुनिया को सच बतायें लेकिन दीगर सवाल यह भी है कि इस देश में रोजाना सैकड़ों आत्महत्याएं होती हैं, सैकड़ों अपराधों के चलते देश बेहाल बना हुआ है, शोषण एवं आर्थिक अपराधों ने देश की अस्मिता एवं अस्तित्व पर प्रश्न खड़े किये है, बेरोजगारी बढ़ रही है, कोरोना का कहर इंसानी जीवन पर मंडरा रहा है, अनेक जांबाज सैनिक सीमाओं की रक्षा करते हुए स्वयं का बलिदान देते हैं, अनेक साहसी नया इतिहास बना रहे हैं, अनेक प्रतिभाओं ने भारत का मस्तक ऊंचा किया है, जबकि फिल्म अभिनेता तो लोगों का केवल मनोरंजन करता है। एक आम नागरिक की जान की कीमत का सही लेखा-जोखा मीडिया की जिम्मेदारी में कब शामिल होगा?

कोरोना महासंकट हो या सीमाओं पर उठापटक इन जटिल स्थितियों के बीच भी हमने देखा है कि कुछ चैनलस् ने जिस आत्मविश्वास से इन संकटों के बीच मीडिया कवरेज किया़, उससे अधिक आश्चर्य की बात यह देखने को मिली कि उन्होंने देश का मनोबल गिरने नहीं दिया। उनसे यह संकेत बार-बार मिलता रहा है कि हम अन्य विकसित देशों की तुलना में कोरोना से अधिक प्रभावी एवं सक्षम तरीके से लडे हैं और उसके प्रकोप को बांधे रखा है। मीडिया की सकारात्मकता एवं साहस के कारण ही ऐसा बार-बार प्रतीत हुआ कि हम दुनिया का नेतृत्व करने की पात्रता प्राप्त कर रहे हैं। हम महसूस कर रहे हैं कि निराशाओं के बीच आशाओं के दीप जलने लगे हैं, यह शुभ संकेत हैं। लेकिन कुछ चैनल ही क्यों? सभी अपनी भूमिका इसी तरह क्यों नहीं निभा रहे हैं, क्यों रिया चालीसा का जाप कर रहे हैं? आज देश के मीडिया की समृद्धि से भी ज्यादा उसकी साख जरूरी है। विश्व के मानचित्र में भारत का मीडिया अपनी साख सुरक्षित रख पाया तो सिर्फ इसलिए कि उसके पास विरासत से प्राप्त ऊंचा चरित्र है, ठोस उद्देश्य है, सृजनशील निर्माण के नए सपने हैं और कभी न थकने वाले क्रियाशील आदर्श हैं। साख खोने पर सीख कितनी दी जाए, संस्कृति नहीं बचती- यह बात मीडिया को समझनी होगी। मीडिया के भीतर नीति और निष्ठा के साथ गहरी जागृति की जरूरत है। नीतियां सिर्फ शब्दों में हो और निष्ठा पर संदेह की परतें पड़ने लगें तो भला उपलब्धियों का आंकड़ा वजनदार कैसे होगा?

ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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