आत्मनिर्भरता : महज एक नारा तो नहीं

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रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रक्षा क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना और फैसले का ऐलान किया है। इसके तहत तोपों, लड़ाकू विमानों, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, टैंकों, युद्धपोतों आदि 101 ऐसे उत्पादों की सूची जारी की गई जिनका अगले पांच सालों तक आयात नहीं किया जाना है। रक्षा मंत्रालय ने कहा है कि इस सूची का और विस्तार होगा। रक्षा मंत्रालय का यह इरादा निश्चय ही सराहनीय है क्योंकि इससे भारतीय सेनाएं न केवल विदेशी हथियारों पर अपनी निर्भरता समाप्त करेंगी बल्कि युद्ध के वक्त किसी देश द्वारा शस्त्र प्रणालियों की सप्लाई रोक देने के खतरे से भी बची रहेंगी। इस नीति से भारत की अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा और लाखों भारतीयों को रोजगार मिलेगा। लेकिन इस फैसले को व्यवहार में लाने के साथ हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इसकी वजह से हमारी सैन्य ताकत से किसी तरह का समझौता नहीं हो।

देसी रक्षा उद्योग इस फैसले के मद्देनजर सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय रक्षा उद्योग इतना सक्षम है कि वह मौजूदा सामरिक चुनौतियों का मुकाबला करने लायक शस्त्र प्रणालियों को तयशुदा वक्त में सेनाओं को सौंप सकेगा। आखिर जब युद्ध होगा तो हमें दुश्मन के हथियारों के मुकाबले बेहतर संहारक क्षमता वाले हथियार अपने सैनिकों को देने होंगे। युद्ध के दौरान सेनाएं केवल इस आधार पर किसी खास शस्त्र प्रणाली का उपयोग नहीं करेंगी कि वे देश में बनी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय सेनाओं को कई ऐसी शस्त्र प्रणालियां भारतीयों ने ही बना कर दी हैं जिनका भारत आयात नहीं कर सकता था और जिनकी वैश्विक बिक्री पर एमटीसीआर (मिसाइल तकनीक प्रसार पर रोक व्यवस्था) जैसी कई अंतरराष्ट्रीय संधियों के जरिए रोक लगा दी गई है।

इनमें लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें शामिल हैं, जिनके भारत में ही निर्माण पर नब्बे के दशक के दौरान अमेरिका और पश्चिमी देश नाक-भौंह सिकोड़ते थे लेकिन भारतीय मिसाइल वैज्ञानिकों ने पश्चिमी मुल्कों द्वारा लगाए गए सभी अड़ंगों को पार करते हुए देश को अग्नि, पृथ्वी, आकाश, निर्भय, ब्रह्मोस, धनुष, के-4 और के-15 जैसी मिसाइलें दी हैं। अग्नि जैसी बैलिस्टिक मिसाइलें परमाणु बमों से भी लैस हो सकती हैं, जिनकी बदौलत हमारी सेनाएं चीन के सामने डट कर खडी हैं। लेकिन परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों का इस्तेमाल युद्ध में ब्रह्मास्त्र की तरह तब किया जाता है जब लड़ाकू विमान, टैंक, युद्धपोत और तोपों की बदौलत हम दुश्मन की बढ़त को रोकने में नाकाम होने लगते हैं। सवाल यह है कि क्या भारत ऐसे टैंकों, लड़ाकू विमानों और तोपों का अपनी तकनीकी क्षमता पर स्वदेशी उत्पादन कर रहा है।

बैलिस्टिक मिसाइलों के स्वदेशी विकास और उत्पादन में जो राष्ट्रीय संकल्प देखा गया वही संकल्प टैंकों और लड़ाकू विमानों के स्वदेशी उत्पादन को लेकर नहीं देखा गया। यही वजह है कि हम विश्व स्तर के लड़ाकू टैंक और विमान नहीं बना सके हैं। हालांकि भारतीय नौसेना के लिए विमानवाहक पोत, डिस्ट्रॉयर, फ्रिगेट और परमाणु पनडुब्बी का स्वदेशी निर्माण हुआ है लेकिन वायुसेना के लिए जो लड़ाकू विमान लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स ने तीन दशकों की कोशिशों के बाद बना कर दिए हैं उन्हें वायुसेना ने काफी झिझक के साथ स्वीकार किया है। एलसीए तेजस की युद्ध में सीमित हवाई रक्षा भूमिका ही होगी। इससे अगली पीढ़ी के विमान एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एएमसीए) के विकास का काम चल रहा है लेकिन यह विमान एक दशक के पहले भारतीय वायुसेना को सौंपा जा सकेगा, इसमें संदेह है।

तब तक भारतीय वायुसेना को राफेल जैसे आयातित विमानों से ही काम चलाना होगा। निश्चय ही पचास के दशक से ही भारत को रक्षा उद्योग में आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशें चल रही हैं। भारत को हथियारों के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए 1958 में ही रक्षा शोध एवं विकास संगठन (डीआरटीओ) की स्थापना हुई थी। इसके साथ ही ऑर्डिनेंस फैक्टरी बोर्ड के तहत अब तक 40 से अधिक आयुध कारखाने बन चुके हैं। इसके अलावा लड़ाकू विमान, मिसाइल और युद्धपोत बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के आठ रक्षा उपक्रम (डीपीएसयू) खड़े हो चुके हैं।

पिछली सदी तक भारत की नीति रही कि रक्षा उत्पादन में प्राइवेट सेक्टर को भागीदारी नहीं करने देंगे और रक्षा साज-सामान का बड़े पैमाने पर निर्यात नहीं करेंगे। इस तरह भारत ने रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने के लिए एक हाथ खुद ही काट लिया। रक्षा उत्पादन में राष्ट्रीय संकल्प से आगे बढ़ना है तो प्राइवेट और सार्वजनिक दोनों उद्योगों को साझेदार बनाना होगा और विश्व बाजार में निर्यात करने लायक उत्पादन करना होगा ताकि विदेशी हथियार कंपनियां भारतीय सेनाओं के लिए भारत में उत्पादन करने के लिए भारतीय प्राइवेट सेक्टर से साझेदारी करें और भारत को विश्व निर्यात का गढ़ बना सकें।

इसीलिए मौजूदा सरकार ने रक्षा उत्पादन में सरकारी के साथ प्राइवेट सेक्टर को साझेदार बनाने का फैसला किया है और रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 74 प्रतिशत का आकर्षक प्रस्ताव वैश्विक रक्षा कंपनियों के सामने पेश किया है। लेकिन इन सब योजनाओं को फलीभूत होने में कई साल लगेंगे। इनके फल देने तक भारतीय सेनाओं को समसामयिक जरूरतों के अनुरूप शस्त्र प्रणालियों और अन्य सैनिक साज-सामान से वंचित नहीं रखा जा सकता। जब युद्ध के बादल मंडराने लगेंगे तब हम यह नहीं कह सकते कि हमारी सेनाओं को स्वदेशी हथियारों का ही इस्तेमाल करना होगा। इस स्थिति से बचने के लिए हमें घरेलू विकास और उत्पादन के सुनियोजित फैसले लेने होंगे।

अनिश्चितता से नुकसान ढुलमुल नीति की वजह से ही राफेल जैसे 36 लड़ाकू विमानों का आयात करना पड़ा, अन्यथा आज 126 लड़ाकू विमानों का भारत में ही स्वदेशी उत्पादन हो रहा होता। इसी तरह नौसेना के लिए छह पनडुब्बियों का स्वदेशी निर्माण विदेशी सहयोग से करने का फैसला डेढ़ दशक पहले हो गया होता तो आज पनडुब्बियों की कमी नहीं होती। यह भी ध्यान रहे कि वायुसेना को जो 120 मीडियम कॉम्बैट लड़ाकू विमान चाहिए, उनका स्वदेशी निर्माण किसके सहयोग से हो, इसका फैसला पिछले एक दशक से लटका हुआ है।

रंजीत कुमार
(लेखक रक्षा विश्लेषक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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