रामजन्मभूमि मुक्ति में भाजपा और कांग्रेस

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अयोध्या में राम-जन्मभूमि मंदिर सदियों बाद बन रहा है। इस्लामी आक्रांताओं ने भारत में हजारों मंदिर तोड़े, जिन में अनेकानेक महत्वपूर्ण मंदिर थे। लेकिन किसी स्थान के लिए हिन्दुओं ने वह अटूट संघर्ष नही किया, जो रामजन्मभूमि के लिए। सदियों से यह लड़ाई आम हिन्दुओं ने स्वयं लड़ी, और उस के लिए बलिदान देते रहे। केवल अंतिम चरण में, पिछले चार दशक में राजनीतिक दलों की भागीदारी हुई। लेकिन इस में भी एक अनोखी बात झलकती है। इसे राष्ट्रीय आंदोलन बनाने में विश्व हिन्दू परिषद (वि.हि.पि.) व भाजपा की बड़ी भूमिका रही, किन्तु इसे राजनीतिक समर्थन देने में कांग्रेस का योगदान प्रमुख है! इस तथ्य से हिन्दुओं से अधिक मुसलमान वाकिफ हैं।

1983 ई. में मुजफ्फरनगर में एक सम्मेलन हुआ, जिस में ‘रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ बनी। इस सम्मेलन में दो बार देश के अंतरिम प्रधान मंत्री रहे कांग्रेस नेता गुलजारीलाल नन्दा ने भाग लिया था। समिति के अध्यक्ष हिन्दू महासभा के नेता महंत अवेद्यनाथ और महासचिव कांग्रेस नेता दाऊ दयाल खन्ना बने। इसी समिति ने अयोध्या, काशी, और मथुरा के मंदिरों की मुक्ति का आह्वान किया। उस समिति ने ही कई वर्षों तक उसे जन-आंदोलन बनाया। उस में भाजपा नेता नहीं थे। बल्कि उस के सर्वोच्च नेता अटल बिहारी वाजपेई तो आंदोलन के ही विरुद्ध थे। उन्होंने यह सार्वजनिक कहा था। अतः पूरे अयोध्या आंदोलन में वे कहीं नहीं मिलते हैं।

फिर, कांग्रेस प्रधान मंत्री राजीव गाँधी ने 1986 में अपनी ओर से रामजन्मभूमि मंदिर पर लगा ताला खोल कर वहाँ हिन्दुओं को पूजा करने की अनुमति दे दी। यह बहुत बड़ा कदम था, जिस से हिन्दुओं को मजबूती मिली। आगे, कांग्रेस मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी और गृह मंत्री बूटा सिंह ने 1989 में उस स्थल पर वि.हि.प. को राम मंदिर का शिलान्यास करने की अनुमति दे दी।

पुनः विपक्षी नेता के रूप में भी राजीव गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट में हिन्दू पक्ष को मजबूत किया। 1990 में उन्होंने लिख कर दिया कि कांग्रेस वहाँ पर राम मंदिर बनाने और विवादी पक्षों के बीच बात-चीत से रास्ता निकालने के पक्ष में है। कई पर्यवेक्षकों के अनुसार, यदि राजीव गाँधी सरकार जारी रही होती तो अपनी लेन-देन शैली में कांग्रेस ने तभी समाधान कर लिया होता। लगभग 25-30 वर्ष पहले ही। इसकी पुष्टि इस से भी होती है कि कांग्रेस समर्थन से बनी चंद्रशेखर सरकार ने भी दोनों पक्षों के विद्वानों को बिठाकर प्रमाण के आधार पर विवादित स्थल सही पक्ष को देकर समझौते की गंभीर कोशिश की थी।

उस के बाद कांग्रेस प्रधान मंत्री नरसिंह राव ने भी हिन्दू पक्ष को मजबूत किया। जबकि इस बीच भाजपा ने हिन्दुओं को टकराव के लिए उभार कर अपने हाथ खींच लिए। संभवतः हिन्दुओं के राष्ट्रव्यापी आक्रोश को दिशा देने की क्षमता उन में नहीं थी। लेकिन तब उन्होंने पहले से चल रही बातचीत स्थिति में हस्तक्षेप कर राजनीतिक टकराव शुरु ही क्यों किया? यह निस्संदेह अटपटा रुख था।

लगभग 1988-89 से अशोक सिंघल के नेतृत्व में वि.हि.प. और लालकृष्ण अडवाणी के नेतृत्व में भाजपा का बड़ा हिस्सा राममंदिर आंदोलन में जुड़ा। अडवाणी की रथयात्रा (1990) ने देश भर में आंदोलन उभारा। लेकिन अडवाणी ने ही 13 अगस्त 1990 को एक सार्वजनिक सभा में मनमानी घोषणा कर दी कि हिन्दू काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्णजन्मभूमि मंदिरों को छोड़ देंगे, यदि मुसलमान रामजन्मभूमि दे दें। वह अप्रत्याशित विश्वासघात था, जिस से रामजन्मभूमि आंदोलन भी कमजोर हुआ। सदियों से राजनीति में पगे मुसलमानों के लिए संकेत समझना कठिन न था कि बंदों में लडने का माद्दा नहीं। सो जब बाकी मंदिर छोड़ ही दिए, तो एक भी क्यों दें? वह तो नहीं ही मिला, उलटे काशी और मथुरा अकारण छोड़ दिया गया। वि.हि.प. ने उन स्थलों के लिए आंदोलन बाकायदा स्थगित कर दिया।

कौन जाने, यदि भाजपा-वि.हि.प. ने काशी, मथुरा को खुद छोड़ देने की घोषणा न की होती तो संयुक्त आंदोलन में आज साथ-साथ उन दोनों स्थलों की भी मुक्ति हो गई होती। क्योंकि अंततः कोर्ट फैसले से ही रामजन्मभूमि मुक्ति हुई। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर, जिस के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2002 में अयोध्या में खुदाई के आदेश दिए थे। उन प्रमाणों पर, न कि किसी आंदोलन से, वह स्थान हिन्दुओ को मिला। वैसे प्रमाण मथुरा व काशी के लिए स्वतः स्पष्ट हैं। इसलिए, प्रमाण आधार पर उन दोनों स्थलों की मुक्ति और सहजता से हो गई होती। अस्तु!

आगे बढ़ें तो 6 दिसंबर 1992 को हिन्दू भीड़ ने आकस्मिक रूप से बाबरी ढाँचा तोड़ना शुरू कर दिया। वह भाजपा की रैली थी, जिस में अडवाणी, सिंहल, मुरली मनोहर जोशी, आदि मौजूद थे। लेकिन ढाँचे का ध्वंस उन की योजना नहीं थी। तस्वीरों में अडवाणी क्षुब्ध, रोते नजर आते हैं। सिंहल को भी कार्यकर्ताओं ने दबाव दे कर चुप बैठाया, जो ध्वंस रोकना चाहते थे। दूसरी ओर, जब प्रधान मंत्री नरसिंह राव को वह ध्वंस शुरू होने की सूचना मिली, तो उन्होंने कुछ नहीं किया। यह मीडिया इतिहास का विचित्र प्रसंग है कि आगे तमाम समाचारों में उन विध्वसंकर्ताओं को सामने लाने, पहचानने की कोई कोशिश नहीं की गई, जबकि सब कुछ कैमरों के सामने हो रहा था। प्रभावी मीडिया सारा दोष भाजपा पर मढ़कर उसे नुकसान पहुँचाने में लगा रहा। विध्वसंकर्ताओं को सामने लाकर यह संभव न होता। वह भाजपा का कारनामा नहीं था। उस दिन को अडवाणी ने ‘अपने जीवन का सबसे काला दिन’ कहा था।

जबकि कांग्रेस प्रधान मंत्री नरसिंहराव ने न केवल उस ध्वंस को नहीं रोका, बल्कि औपचारिक बयानबाजियों के बाद फिर मामले को उस स्थल पर ‘पहले मंदिर रहे होने के प्रमाण’ की ओर मोड़ दिया। उन्होंने 1994 में सुप्रीम कोर्ट से आधिकारिक राय माँगी कि ‘‘क्या विवादित बयान पर पहले मंदिर था? यदि कोर्ट इस का उत्तर हाँ में दे तो सरकार हिन्दू पक्ष के अनुसार निर्णय लेगी। अगर उत्तर ना में मिले तो सरकार मुस्लिम पक्ष के अनुसार निर्णय लेगी।’’ यह एक निर्णायक बात थी, जिस से हिन्दू पक्ष को फिर बल मिला। नरसिंहराव ने बाबरी ढाँचे विध्वंस पर अलग कानूनी कार्रवाइयाँ की, जबकि रामजन्मभूमि मुक्ति के मुद्दे को ऐतिहासिक प्रमाण पर केंद्रित रखा। यदि सरकार ने यह भूमिका नहीं निभाई होती, तो 6 दिसंबर 1992 के बाद सारी चीज दूसरी दिशा ले सकती थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कोई राय देने से इंकार किया। फलतः मामला पुनर्मूषिको भव, इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुँच गया। भाजपा आंदोलन बंद कर ही चुकी थी। हाई कोर्ट ने विवादित स्थल की खुदाई करवा कर ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर 2010 में हिन्दुओं के पक्ष में फैसला दिया। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट आया, जहाँ उसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। आठ वर्ष पड़े रहने के बाद भी उसे हाथ में नहीं लिया गया। किसी राजनीतिक दल ने उस के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। यह तो डॉ. सुब्रहमण्यन स्वामी की बुद्धि का निजी हस्तक्षेप था कि कोर्ट को सुनवाई करनी पड़ी और अंततः 2019 में फैसला आया।

पूरा प्रकरण दिखाता है कि रामजन्मभूमि आंदोलन को व्यापक बनाने में वि.हि.प.-भाजपा ने तीन-चार वर्ष बड़ी भूमिका निभाई। किन्तु उसे राजनीतिक समर्थन देने में कांग्रेस की भूमिका प्रमुख थी। 1986 से 1995 तक सभी महत्वपूर्ण मोड़ पर कांग्रेस ने हिन्दू पक्ष को मजबूत किया। भाजपा ने तो मामले को हाथ में लेकर लगभग फौरन गर्म आलू की तरह छोड़ दिया। पूछने पर उन के एक नेता ने कहा भी कि ‘अयोध्या भुनाया जा चुका चेक है’। यद्यपि डॉ. स्वामी भी भाजपा नेता ही हैं, जिन्होंने अंतिम लड़ाई लड़ी।

शंकर शरण
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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