राज्यों पर आने वाला संकट

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राजस्थान में चल रही सियासी हलचल के बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बहुत जरूरी और जायज सवाल उठाया है। उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ तत्काल राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाने को कहा है। उन्होंने कहा है कि राज्यों की वित्तीय हालत खराब हो रही है और प्रधानमंत्री को तत्काल वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बैठक करनी चाहिए। असल में हर राज्य चाहते हैं कि सीधे प्रधानमंत्री स्तर से बात हो और राज्यों की वित्तीय मुश्किलें दूर करने के कदम उठाए जाएं। ध्यान रहे आखिरी बार जून के मध्य में प्रधानमंत्री ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात की थी। तब सभी मुख्यमंत्रियों ने वित्तीय मुश्किलों का हवाला दिया था, आर्थिक पैकेज की मांग की थी, जीएसटी में अपना हिस्सा और मुआवजा तत्काल मुहैया कराने को कहा था और दूसरे उपाय करने को कहा था, जिससे उनकी आर्थिक हालत सुधरे। सो, डेढ़ महीने से ज्यादा समय से प्रधानमंत्री का मुख्यमंत्रियों के साथ संवाद नहीं हुआ है। इस बीच राज्यों की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। साथ साथ केंद्र सरकार की मुश्किलें भी लगातार बढ़ती जा रही हैं। सरकार का जून का जीएसटी का राजस्व कम हो गया है। मई के 92 हजार करोड़ रुपए के मुकाबले जून में 87 हजार करोड़ रुपए की वसूली हुई है। यह जीएसटी के एक लाख करोड़ रुपए के सामान्य औसत से बहुत कम है। हालांकि यह भी आंकड़ा वास्तविक नहीं है। ध्यान रहे मार्च के आखिर में कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के लिए केंद्र सरकार ने जब लॉकडाउन शुरू किया था तब जीएसटी रिटर्न भरने से लोगों को छूट दी गई थी।

उसकी वजह से लोगों ने अप्रैल में जीएसटी रिटर्न नहीं भरा या बहुत मामूली भरा, तभी सरकार ने मई में जो आंकड़ा जारी किया उसके मुताबिक सिर्फ 32 हजार करोड़ रुपए की वसूली बताई गई। जून में यह आंकड़ा 92 हजार करोड़ पहुंचा और जुलाई में 87 हजार आ गया। इसके दो मायने निकाले जा रहे हैं। पहला तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून में जो ग्रीन शूट्स यानी हरी कोंपले दिखाई देने और अर्थव्यवस्था में सुधार की जो उम्मीद जताई थी वह पूरी नहीं हो रही है और दूसरे जून, जुलाई के जो आंकड़े जारी किए गए हैं इसमें मार्च और अप्रैल के भी आंकड़े शामिल हैं। जिन लोगों ने उस समय जीएसटी रिटर्न नहीं भरा था, उन्होंने बाद में भरा इसलिए आंकड़ा उतने तक भी पहुंचा। ध्यान रहे पिछले वित्त वर्ष में भी सरकार की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर दोनों की वसूली लक्ष्य से कम रही थी और इस वजह से वित्तीय घाटा लक्ष्य से ऊपर चला गया था। सरकार ने पिछले दिनों वित्तीय घाटे का आंकड़ा जारी किया है। यह भी हैरान करने वाला है। कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से राजस्व वसूली लगभग ठप्प है और सरकारी खर्च कम नहीं हो रहा है। इसलिए चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल से जून के बीच सरकार का वित्तीय घाटा 6.62 लाख करोड़ रुपए का रहा। सरकार ने पूरे साल के लिए साढ़े तीन फीसदी यानी 7.96 लाख करोड़ रुपए के वित्तीय घाटे का लक्ष्य तय किया है, जिसमें 83.2 फीसदी घाटा पहले तीन महीने में ही हो गया। अगर इसी रफ्तार से घाटा बढ़ा तो राजस्व वसूली में सुधार के बावजूद वित्तीय घाटा 7.6 फीसदी रहेगा यानी तय लक्ष्य के दोगुने से ज्यादा।

अगर इसमें राज्यों का वित्तीय घाटा भी जोड़ दें तो यह 12 फीसदी से ऊपर चला जाएगा। अंदाजा है कि इस साल राज्यों को साढ़े चार फीसदी से कुछ ज्यादा वित्तीय घाटा होना है। सोचें, ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार का काम कैसे चलेगा और राज्यों की क्या हालत होगी? केंद्र सरकार के कम से कम एक विभाग रेलवे की खबर आ गई है कि उसके पास अपने रिटायर कर्मचारियों को पेंशन देने के पैसे नहीं हैं। इसके लिए उसे 53 हजार करोड़ रुपए की जरूरत है, जिसके लिए रेलवे ने वित्त मंत्रालय से गुहार लगाई है। इतने भारी वित्तीय घाटे के बीच केंद्र सरकार कैसे फंड देगी, यह सोचने वाली बात है। एयर इंडिया अगर नहीं बिकता है तो सरकार को अलग मुसीबत होगी। उसके हजारों कर्मचारियों को बिना वेतन के छुट्टी पर भेजने के बावजूद वेत्तन और पेंशन का इंतजाम मुश्किल होगा। इसी चिंता में केंद्र सरकार राज्यों को जीएसटी में उनका हिस्सा देने के फार्मूले को बदलने की तैयारी कर रही है। अटॉर्नी जनरल ने केंद्र सरकार को सलाह दी है कि वह राज्यों को बढ़ा हुआ राजस्व देने के लिए बाध्य नहीं है।

ध्यान रहे जीएसटी का फार्मूला बनाते समय तय हुआ है कि 14 फीसदी की वृद्धि दर के हिसाब से केंद्र राज्यों को हिस्सा देगा। अब केंद्र सरकार कह रही है कि एक निश्चित सीमा से कम वसूली होने पर सरकार बढ़ा हुआ हिस्सा देने को बाध्य नहीं है। उसने कई महीनों से राज्यों के मुआवजे का हिस्सा रोका हुआ है। अब राज्यों के पास कोई चारा नहीं है। उन्होंने अपने राजस्व के सारे स्रोत केंद्र को सौंप दिए हैं। अगर केंद्र सरकार ने उनको तय फार्मूले के हिसाब से पैसा नहीं दिया तो एक से दो महीने के अंदर राज्यों के पास अपने कर्मचारियों का वेतन देने के पैसे नहीं रहेंगे। आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत केंद्र ने राज्यों के कर्ज लेने की सीमा बढ़ा दी है। पर ज्यादातर राज्यों के ऊपर पहले से कर्ज का भारी बोझ है। इसलिए राज्य चाहते हैं कि केंद्र सरकार राज्यों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज की घोषणा करे। इसकी संभावना कम है कि केंद्र सरकार राज्यों को कोई आर्थिक पैकेज देगी। इसका मतलब होगा कि केंद्र से राज्यों को बहुत जल्दी बकाया का भुगतान नहीं होना है, पहले के मुकाबले जीएसटी का राजस्व कम मिलना है और कोई आर्थिक पैकेज नहीं मिलना है। सो, आने वाले दिनों में राज्यों का संकट गहराने वाला है।

शशांक राय
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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