सीताराम गोयल ने पाया था, ‘‘कि आरएसएस और बीजेएस (भारतीय जनसंघ) के बड़े-बड़े नेता अपना लगभग सारा समय और ऊर्जा यह प्रमाणित करने में खर्च करते थे कि वे हिन्दू संप्रदायवादी नहीं, बल्कि सच्चे सेक्यूलर हैं।’’ यही स्थिति आज भी है। संघ के कार्यकर्ताओं ने कॉलेज में पढ़ रहे सीताराम गोयल को ‘‘हिन्दू राष्ट्र पर लिखने को प्रेरित करने के लिए काफी भाषण पिलाया।’’ आज भी उन के नेता नारे, जुमले गढ़ते हैं, और दूसरों को उस पर लिखने के लिए कहते हैं। तब संघ के लोग कहते थे ‘‘कि महात्मा (गाँधी) केवल मुस्लिम लीग का टट्टू और अफगानिस्तान के अमीर का एजेंट है।’’ आज वे उसी तरह की बातें कांग्रेस के वर्तमान नेताओं के बारे में कहते हैं।उस जमाने में वे ‘‘कांग्रेस और बीजेएस की नीतियों के अंतर पर मेरी बातों को पसंद नहीं करते थे। उन्होंने मुझे बार-बार कहा कि मैं कांग्रेस को बेईमान समाजवादी व सेक्यूलर तथा बीजेएस को ईमानदार समाजवादी व सेक्यूलर कहूँ।’’ आज भी वे भाजपा को ईमानदार और कांग्रेस को भ्रष्ट कहने पर मुख्य जोर देते हैं। संघ-परिवार के नेता सीताराम गोयल की बातें सुनते थे, मगर ‘‘गंभीरता से नहीं लेते थे। अधिकांश समझते थे कि संगठन ही सब कुछ है, और विचारदृष्टि का मूल्य बहुत कम है।’’ गोयल ने देखा था कि ‘‘आरएसएस की सभाओं में वक्ता दर वक्ता ‘बुद्धिजीवियों’ का खूब मजाक उड़ाता, कि इन्होंने पुस्तकें तो बहुत पढ़ ली मगर जिन्हें ‘व्यवहारिक समस्याओं’ का कुछ पता नहीं।’’ दोनों स्थितियाँ यथावत हैं। पचास साल पहले भी ‘‘आम तौर पर वे किसी विचार पर प्रतिक्रिया नहीं करते थे, सिवा अपने संगठन (संघ) और उस के नेताओं के बारे में। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज, हिन्दू इतिहास पर कोई कितनी भी बुरी-बुरी बातें कहे, एक आम आरएसएस व्यक्ति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता।
’’ आज भी यही हाल है।सीताराम गोयल के लेखन से आम संघ-बीजेएस कार्यकर्ता बहुत प्रेरित हुए थे। जिस ने ‘‘हमारे लोगों के चिंतन में एक क्रांति कर दी है’’, आदि। पर जैसे ही ऊपर किसी नेता की नजर टेढ़ी हुई, वैसे ही पलटी मार कर कहा, ‘‘सीताराम जी, आपको नेहरू के सिवा कोई काम नहीं है? आखिर नेहरू ने ऐसा क्या कर दिया जो आप हाथ धोकर उन के पीछे पड़ गए?’’ संभवतः आज भी किसी ऊपरी नेता की नजर ही विद्वान का मूल्यांकन करती है। कूनराड एल्स्ट जैसे दुर्लभ विद्वान के प्रति व्यवहार यही दर्शाता है। तब भी संघ परिवार को ‘‘एक मात्र जीवित हिन्दू आंदोलन के रूप में देखा जाता था… पर आरएसएस-बीजेएस में हो रही बातों के जो समाचार मुझे मिल रहे थे, काफी निराश करने वाले थे।’’ यह स्थिति आज भी है। वे एक मात्र हिन्दू आंदोलन दिखते हैं, मगर वैसे ही वैचारिक रूप से दबे-सकुचे, दिशाहीन, साफ बोलने से बचते, अपने किसी हवाबाज नेता के आगे झुके, और अपनी कोरी दलीलों से आत्मतुष्ट। तब एक लोकप्रिय बीजेएस नेता ने पार्टी को ‘‘कमो-बेश पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया था। वह न केवल पंडित नेहरू के विचार-तंत्र से सहमत था, बल्कि अपने पार्टी सहयोगियों से निपटने में उन जैसे मिजाज का भी था।’’ आज भी उन्होंने लगभग किसी भी नेहरूवादी विचार को नहीं ठुकराया है। तब भी लफ्फाजियाँ थीं: ‘‘अमेरिका का जो बेड़ा बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ रहा है, उस का एक जहाज भी वापस न जाने पाए’’ कहा जाता था। आज भी चीन, अमेरिका, यूरोप, हर कहीं अपनी धाक, तथा भारत के ‘‘विश्व-गुरू बन जाने’’ की लफ्फाजी उसी तरह है। असली स्थिति अमेरिकी, चीनी कार्रवाइयों से, तथा हमारी कोई स्कूली पुस्तक उलट कर देखी जा सकती है। तब गुरू गोलवलकर सार्वजनिक मंच से कहते थे ‘‘कि वे इस्लाम का आदर हिन्दू धर्म से जरा भी कम नहीं करते। कि कुरान उन के लिए उतना ही पवित्र है जितना वेद, और वे प्रोफेट मुहम्मद को मानव इतिहास में ज्ञात महानतम पुरुषों में एक मानते हैं।
’’ आज भी, हाल में एक सर्वोच्च भाजपा नेता ने ‘‘प्रोफेट मुहम्मद के रास्ते पर चलने’’ का सार्वजनिक उपदेश दो बार दिया है।इस प्रकार, जो सीताराम गोयल ने देखा था कि संघ-परिवार की नजर में ‘‘यदि इस्लाम इतना सुंदर है तो फिर कोई समस्या ही नहीं!’’ संभवतः वही आत्म-छलना आज भी है। गोयल ने पाया था कि ‘‘आरएसएस-बीजेएस पूरी तरह नेहरूवादी विचारों के अनुरूप हो गए और तदनुरूप … कांग्रेसियों, समाजवादियों से भरपूर नीचा व्यवहार पाया।’’ आज भी ताकतवर भाजपा अध्यक्ष हिन्दू-निंदक पत्रकार कुलदीप नैयर से मिलने उन के घर गए, उन्हें अतिविशिष्ट सम्मान दिया! जबकि दूसरे ही दिन नैयर ने लेख प्रकाशित कर संघ-परिवार को नीच बताया। सो, सेक्यूलर-वामपंथी लोग संघ-परिवार को आज भी हीन समझते हैं, पर संघ-भाजपा नेता उन की मनुहार करते रहते हैं। आज भी भाजपा नेता अपने सेक्यूलर, वामपंथी मित्रों को उसी तरह पद, सम्मान देने पर अड़े रहते हैं, जैसे तब मॉस्को के भारतीय एजेंट या सैयद शहाबुद्दीन को दिया गया था। कुछ ऐसी ही निराधार दलीलें देकर कि वह ‘‘सही प्रकार का मुस्लिम नेता है जिसे हम ढूँढ रहे हैं।’’तब भी ‘‘आरएसएस या बीजेपी में किसी को शायद जानकारी नहीं थी या याद करने की परवाह न थी, कि भारत के इतिहास में इस इस्लामी रंग ने क्या भूमिका दिखाई है, और भारत के भविष्य के लिए इस का क्या संकेत है।’’ आज भी स्थिति बदलने का कोई प्रमाण नहीं है। भाजपा के गठन के बाद ‘‘नेहरूवादी नारे लगाने का एक और मंच तैयार हो गया।’’ आज चार दशक बाद भी ‘विकास सभी समस्याओं का समाधान’, तथा ‘गरीबों’, ‘दलितों’ व ‘अल्पसंख्यकों’ की विशेष चिंता, आदि मूलतः नेहरूवादी और सारतः हिन्दू-विरोधी एवं हिन्दू-विखंडक नारे ही हैं।
इस के बावजूद कि संघ-परिवार के नेताओं ने पाया कि ‘‘ऑर्गेनाइजर (संघ के अखबार) के लिए सीता राम गोयल सब से कमाल की घटना साबित हुए हैं’’, उन के लेखों को पहले सेंसर, फिर बंद किया गया। अहंकार से कहा गया कि ‘‘कभी कभी लिखिए।’’ वही स्थिति आज भी है जब डेविड फ्रॉले, श्रीकान्त तलागेरी, कपिल कपूर जैसे अनूठे विद्वानों का पार्टी-हित में ‘कभी-कभी’ उपयोग किया जाता है। हिन्दू धर्म-समाज के लिए उन के मूल्यवान योगदान एवं संभावनाओं का सदुपयोग करने की बुद्धि नहीं है! मुसलमानों को किसी भी तरह अपने साथ जोड़ लेने की लालसा यथावत है। यह पूछने पर कि ‘‘क्या आप सचमुच चाहते हैं कि मुसलमान आप के पास आएं?’’, उत्तर शुरू हुआ था: ‘‘एक रणनीति के रूप में …’’। तीन-चार दशक पहले की वह बचकानी हालत आज भी हू-ब-हू बनी हुई है। मानो मुस्लिम अपना मतवाद और इतिहास नहीं जानते। उन्हें बहलाने-फुसलाने के चक्कर में संघ-परिवार हिन्दू धर्म-समाज की हानि और अपनी किरकिरी भी कराता है। पर सीख नहीं लेता। अतः कांग्रेस पर ‘‘वोट के लिए मुसलमानों का तुष्टीकरण’’ आरोप लगाना, और स्वयं उसी में लग जाने में कोई परिवर्तन नहीं आया। यह संघ-भाजपा के बयानों, कार्यों, निर्णयों से दिखता है। इस्लाम के प्रति वे कल्पनाओं में रहने के आदी हैं। इस के इतिहास या भावी संभावनाओं से निर्विकार। किसी नेता के चमत्कार पर निर्भरता पहले से बढ़ गई है। इसलिए उन का संगठन कागजी शेर भी लगता है। जिस में किसी झटके को संभालने की शक्ति पहले से कम और सत्ता पर निर्भरता हो। इसलिए सभी सचेत हिन्दुओं को स्थिति का वास्तविक आकलन करना चाहिए। हिन्दू धर्म और समाज किसी पार्टी या संगठन से बहुत बड़ा है।
शंकर शरण
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं ये उनके निजी विचार हैं)