पिता को दोस्त होना चाहिए, शास्त्रों में लिखी यह बात लोग दोहराते नहीं थकते। ‘प्राप्ते षोडशेवर्ष पुत्रापि मित्रवत समाचरेत’, इस श्लोक में कहा गया है कि 16 वर्ष का होते ही पुत्र को पिता के मित्र के रूप में देखा जाना चाहिए। इसमें बेटी का जिक्र नहीं है। यह श्लोक दुर्भाग्य से उसी श्लोक की तरह हो गया है जिसमें कहा गया है कि जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वह स्थान स्वर्ग के समान होता है। जिसे लेकर बहुत बड़ा आदर्श बना लिया जाए, समझ लें उसका तो बंटाधार ही होना है। सच यह है कि पिता बच्चों के लिए आमतौर पर भय और अनुपस्थिति का प्रतीक होता है। जो बाहर रहता है, डराता है, वह पिता है। घर में उसके आते ही सन्नाटा छा जाता है। माएं इशारे से बच्चों को चुप कराती हैं और पति की सेवा में लग जाती हैं। यह मध्य वर्ग के परिवारों की कहानी है। शुरू से शहरों में रहने वाले, कामकाज करने वाले दंपति और उनके परिवारों में दृश्य अलग होता होगा, पर बुनियादी तौर पर पिता एक सत्ता के रूप में ही देखा जाता है। लेकिन आदर्श और यथार्थ के बीच खाई बहुत गहरी है। यदि माता-पिता और बच्चों के बीच गहरे स्नेह व सम्मान पर आधारित रिश्ते होते, तो हमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक समस्याएं भी बहुत हद तक कम हो गई होतीं।
हिंसा, डिप्रेशन, मानसिक बीमारी की जड़ें छोटी उम्र के अनुभवों में ही होती हैं और ये अक्सर बच्चों और माता-पिता के बीच की संवादहीनता से होते हैं। समझदार होते हैं वे पिता जो अपने बच्चों को समझ लें। साल 2000 के बाद जन्मे कई बच्चों से बात करें तो पता चलेगा कि उनमें से कई शादी नहीं करना चाहते, पैंरट्स नहीं बनना चाहते। ऐसी सोच शायद दो कारणों से बनी होगी। पहली तो यह कि उनके परिवार में उन्हें सुखद अनुभव नहीं हुए होंगे, दूसरा यह कि उन्हें अपने माता-पिता को देखकर कहीं न कहीं परवरिश की जिम्मेदारियां भारी लगती होंगी। कामकाज में फंसे मां-बाप, स्कूल एडमिशन की जद्दोजहद, पढ़ाई का बोझ, यह सब देखकर क्या उन्हें बचपन में ही जीवन के सुखद अनुभव होने बंद हो जाते हैं और शायद उन्हें लगता है कि झमेलों की जड़ में शादी और संतान का जन्म लेना ही है। समझदार पिता बच्चों को प्रश्न करना जरूर सिखाएगा। यह भूलकर कि बच्चों की जिज्ञासा और प्रश्न उसकी सत्ता को कमजोर बना सकते हैं। उसके भीतर गहरी विनम्रता होगी। वह इस विश्वास को जगाए रखेगा कि बच्चे जीवन की नवीन ऊर्जा लेकर आए हैं, उन्हें पुराने विचारों से जितना कम प्रभावित किया जाए उतना अच्छा होगा। उन्हें यह भी सिखाएगा कि यदि असफलता और कुंठा आ जाए तो उससे सही ढंग से कैसे निपटा जाए।
एक अच्छा पिता एक मित्र, मनोवैज्ञानिक सलाहकार, बच्चों के साथ सीखने वाला और जरूरत पड़ने पर उनकी गलतियों को बगैर क्रोध के बताने वाला सहयात्री होगा। इतिहास देखें, सबसे सृजनशील लोगों ने अपनी जीवन यात्रा पिता पर प्रश्न करते हुए, कई बार उनके खिलाफ बगावत करते हुए ही की थी। बुद्ध ने पिता शुद्धोधन की बात मानी होती तो चलाते राजपाट। एक बार क्राइस्ट लोगों से बात कर रहे थे और किसी ने कहा कि जोसफ आए हैं तो क्राइस्ट का जवाब था, ‘मेरा पिता (ईश्वर) सिर्फ स्वर्ग में है और कोई पिता मेरा नहीं।’ आदि शंकराचार्य निर्वाण षटकम् में लिखते हैं कि जब किसी ने उनसे पूछा कि वह हैं कौन? तो उन्होंने कई बातों के अलावा एक बात यह भी कही कि मेरे कोई पिता या माता नहीं। यदि इन लोगों ने अपने पिता की जीवन शैली को ही दोहराया होता तो सफल और औसत दर्जे के बनकर रह गए होते। जो पिता चाहता है कि उसका बेटा या बेटी उसी की तरह बने, वह मानव विकास की गति को धीमा कर देता है। बदलाव की शुरुआत पिता से विरोध के साथ ही होती है।
अधिकतर पिता आत्ममुग्ध अवस्था में रहते हैं। वे अपने बच्चों को भी खुद की तरह बना देना चाहते है। आपको नहीं लगता कि बच्चे कम आज्ञाकारी होते तो दहेज जैसी बुराइयां काफी कम हो जातीं। प्रेम विवाह ज्यादा होने लगते। बच्चे उन विषयों को बगैर अपराध बोध के पढ़ते जिनमें उनका दिल लगता और भी बहुत कुछ होता। इसलिए आपने इस संसार में बच्चों को लाकर बहुत बड़ा उपकार कर दिया है, अब उन्हें अपने आप ही खिलने दें, अपने संस्कारों का अनावश्यक बोझ उन पर न डालें। संबंधों में थोड़ा स्पेस रहने दें। प्रेम भी बहुत बड़ी कैद और बोझ बन सकता है, इसके प्रति सजग रहें। एक पिता होने के नाते मुझे यह सब कहने का हक है। खलील जिब्रान की एक कविता है ‘बच्चे’, उसका अनुवाद मणि मोहन ने किया है। वह लिखते हैं: तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं / वे तो जीवन की अपनी ही बेकरारी के बेटे और बेटियां हैं। वे तुम्हारे माध्यम से आते हैं पर तुमसे नहीं/ हालांकि वे तुम्हारे पास हैं/ फिर भी तुम्हारे नहीं। तुम उन्हें अपना प्रेम दे सकते हो/ पर अपने विचार नहीं/ क्योंकि उनके पास खुद अपने विचार हैं।
चैतन्य नागर
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)