अमेरिका में पुलिस के हाथों एक अश्वेत की मौत पर आरंभिक प्रदर्शनों के बाद, जल्द ही राजनीतिक स्वार्थ हावी हो गए। दोषी पुलिस वाले को दंड मिल जाने के बाद भी लूट-पाट, आगजनी, हत्या और विध्वंस चल रहा है। अब तक दंगाई 17 लोगों की जान ले चुके हैं, जिन में राहगीर, दुकानदार, सुरक्षा-गार्ड, रेस्टोरेंट कर्मचारी, जैसे निर्दोष लोग हैं। इस में किसी न्याय-अन्याय की फिक्र नहीं है। ऐसे विध्वंस को अनेक लोगों का समर्थन उस शिक्षा का भी परिणाम है जिस में अपने देश से घृणा सिखायी जाती है। अमेरिका में पुलिस कार्रवाइयों के रिकॉर्ड से अश्वेतों के विरुद्ध पूर्वग्रह नहीं साबित होता। उलटे लंदन के ‘द इकॉनोमिस्ट’ (24 जुलाई 2019) के एक आकलन के अनुसार वहाँ किसी अश्वेत अपराधी पर अश्वेत पुलिस वाले तो गोली चलाते हैं, गोरे पुलिस वाले इस से बचते हैं। पर राजनीतिक-बौद्धिक प्रचार तथ्यों की परवाह नहीं करता। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अमेरिका को ‘गोरा वर्चस्ववादी फासिस्ट राज्य’ कहा जाता है। इस से असहमत विद्वान को बोलने नहीं दिया जाता। तब परिणाम क्या होगा? दो-चार प्रतिशत युवा भी ऐसे जहर से भर गए, तो विध्वंस भड़काने के लिए काफी हैं। अभी अमेरिका में यही हुआ है। भारत में भी लंबे समय से यह होता रहा है। अरुंधती राय भारत को ‘ब्राह्मण वर्चस्ववादी फासिस्ट राज्य’ कहती हैं, जो तमाम रेडिकल-वामपंथियों और मीडिया के एक प्रभावी हिस्से की प्रिय हैं। यहाँ प्रमुख विश्वविद्यालयों में खुली भारत-विरोधी नारेबाजी होती है।
क्योंकि अपने ही देश, समाज, धर्म से घृणा सिखाने वाले विचार हमारे सामाजिक विज्ञान और साहित्य शिक्षण में धीमे जहर की तरह फैलाए गए। ऐसा कैसे हुआ? अमेरिकी संदर्भ में डैनियल पाइप्स ने इस पर ध्यान दिया है। उन का लंबा समय हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में बीता। उन के अनुसार जब से विश्वविद्यालयों में अलग-अलग समूहों, समुदायों के संकीर्ण ‘अध्ययन’ (मायनोरिटी, जेंडर, आदि) विभाग बनने लगे, तभी से वहाँ जानकार के बदले प्रचारक बनने लगे। वे संपूर्ण समाज और देश के बदले किसी समूह विशेष या आइडियोलॉजी के झंडाबरदार हो गए। ऐसे लोगों को विद्वत तमगा मिल जाने से देश-समाज के दुश्मनों को नया बल मिला। उन्होंने उन अकादमिक विभागों, प्रोफेसरों को अनुदान, प्रोत्साहन देना शुरू किया। जैसे, अमेरिकी विश्वविद्यालयों की ‘मिड्ल ईस्ट स्टडीज’ में कई अरब देशों की सरकारों व इस्लामी संगठनों ने पैसा लगाना शुरू किया। वही एक्टिविज्म भारत में सरकारी संस्थानों का दुरुपयोग कर वामपंथी प्रोफेसरों ने फैलाया। नतीजन बिना तथ्यों या आँकड़ों के कोरी नारेबाजी, लांछन, आदि से भरे पर्चे, पुस्तकें बौद्धिक मानक बन गए। उस पर बड़े विश्वविद्यालयों का ठप्पा लगा होता था। उसे प्रमाण दिखा कर, शिक्षा और विमर्श पर दबदबा बनाना सरल हो गया। जब तक लोग यह समझते तब तक समाज विज्ञान शिक्षा बिगड़ चुकी थी। इसे हर तरह के निहित स्वार्थों ने बढ़ाया। वे संयत आलोचना तक को ‘असहिष्णुता’ कह कर रोकते हैं।
इस तरह, कई लोकतांत्रिक देशों में सोशल साइंस और ह्यूमैनिटीज में विभेदकारी, संकीर्णतावादी, और देश-विरोधी विष फैलाया गया। इन विचारों का लिफाफा ‘वंचितों, दुर्बलों की चिंता’ करना है। लेकिन मजमून सीधे-सीधे देश, समाज की जड़ में मट्ठा डालता है। इस का प्रमाण यह है कि किसी दुर्बल, वंचित तबके के ‘अध्ययन’ में उस की स्थिति का संपूर्ण आकलन, बदलाव, प्रगति, और उन के अपने स्वर तक को महत्व नहीं दिया जाता। केवल बना-बनाया, पुराना, अतिरंजित या मनगढ़ंत निष्कर्ष दिया जाता है। ताकि केवल जुल्म, भेद-भाव, आदि का नरेटिव बने। जबकि लोकतांत्रिक देशों में अश्वेतों, अप्रवासियों, स्त्रियों, अपंगों, आदि समूहों का प्रतिनिधित्व विविध क्षेत्रों में बढ़ा है, जो पहले कम था। इसे समाज ने समर्थन दिया है। पर सकाराकात्मक तथ्यों को दरकिनार कर केवल उत्पीड़न का राग अलापा जाता है। यह निस्संदेह सामाजिक विद्वेष बढ़ाने का नुस्खा है। इस के पीछे किसी की चिंता नहीं, बल्कि एक विखंडनकारी राजनीति को बढ़ावा देना है। यही हाल में हुआ जब नागरिकता कानून संशोधन के विरोध के बहाने भारत में दंगे भड़काने की कोशिश हुई। उस में साफ झूठ कहा गया कि देश के एक समुदाय को हानि हुई। बाद में विरोधी नेताओं ने माना कि किसी वर्तमान नागरिक को उस से हानि नहीं है, और वे ‘आगे वंचित होने की संभावना’ का तर्क देने लगे। लेकिन तक तक काफी विध्वंस हो चुका था। झूठी लफ्फाजियों के आधार पर ओवैसी जैसे नेताओं और मांदेर जैसे बुद्धिजीवियों ने हिंसा का भी आवाहन किया था।
अरुंधती राय ने जर्मन टी.वी. ‘डॉयच वेल’ पर अपने लंबे साक्षात्कार (17 अप्रैल 2020) में अनेक झूठी और उत्तेजक बातें कहीं। जैसे, ‘‘मोदी सरकार मुसलमानों को बदनाम कर रही है।’’ उन्होंने अनेक जहरीली, पर निराधार बातें पूरी दुनिया में फैला दीं। इस की अन्य देशों में और यहाँ अंतर-समुदायिक संबंधों पर क्या प्रतिक्रिया होगी? केवल परस्पर संदेह, आक्रोश बढ़ेगा। फिर उसी का उपयोग अपना दुष्प्रचार फैलाने में किया जाएगा। यही दुष्चक्र विश्वविद्यालयों के सामाजिक विज्ञान विभागों के पाठों द्वारा भी तैयार किया गया है। विद्वेष, संकीर्णता, राजनीतिक-प्रचार विविध रूपों में फैलाना। उसी को मीडिया में भी वामपंथी लोग दुहराते हैं। अतः हमारे विश्वविद्यालयों में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह…’ और ‘ला इलाहा इलल्लाह…’ के नारों के साथ जो विध्वंस होते हैं, वह अनायास नहीं है। उस के पीछे मुख्य कारण लंबे समय से अबोध किशोरों, युवाओं को देश-द्रोह, हिन्दू-द्वेष के पाठ पढ़ाना है। यह ‘वंचितों, दुर्बलों की विशेष चिंता’ के अध्ययन-अध्यापन और एक्टिविज्म द्वारा होता है। जिस में सचाई या देश-समाज की परवाह नहीं की जाती। इसे गंभीर न मानना एक घातक आत्म-छलना है जिस में हमारे देश के नेता और नीति-निर्माता डूबे हुए हैं। डैनियल पाइप्स ने पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय में हुए एक सेमिनार का अपना अनुभव लिखा है। सेमिनार का विषय था, ‘सन् 1500-1900 के बीच अमेरिकी और मुस्लिम दुनिया’।
उस से आज लोकतांत्रिक देशों में समाज विज्ञान अध्ययन और शोध की एक झलक मिलती है। उन्होंने पाया कि सभी वक्ताओं, पर्चों में कुछ बातें पूर्व-निर्धारित थीं। जैसे, गैर-अमेरिकी लोग अमेरिकियों से बेहतर हैं; स्त्रियाँ पुरुषों से बेहतर हैं; रंगीन चमड़ी वाले गोरों से बेहतर हैं; और मुसलमान गैर-मुसलमानों से बेहतर हैं। यह अमेरिकी विश्वविद्यालयों के समाज विज्ञान विभागों की पवित्र मान्यताएं बन चुकी हैं। इन्हें स्वयंसिद्ध मानकर सारा विमर्श चलता है। असहमत विद्वान या तो सेमिनारों में निमंत्रित नहीं किये जाते, या उन्हें लांछित करके हूट किया जाता है। यही स्थिति दशकों से कई भारत में समाज विज्ञान शिक्षा, शोध की भी है। गैर-वामपंथी विद्वान कितने भी सत्यनिष्ठ लेखक, विचारक क्यों न हों, उन्हें समाज विज्ञान या साहित्य विभागों द्वारा कभी एक व्याख्यान देने के लिए भी निमंत्रित नहीं किया गया। उन की पुस्तकों का अध्ययन तो दूर रहा! कम से कम चार दशकों से यही हालत है।
ऐसे राजनीतिक-प्रेरित समाज विज्ञान शिक्षण ने नारेबाजी और अपशब्दों को अकादमिक पदवी दिला दी है। जैसे, अमेरिका में ‘इस्लामोफोब’ और भारत में ‘सांप्रदायिक’। ये लांछनकारी शब्द अकादमिक विमर्श और मीडिया में सहज रूप में प्रयोग होते हैं। परवाह नहीं की जाती कि जिस के विरुद्ध इन का प्रयोग किया जाता है, उस की बात वैसी है भी या नहीं। भिन्न-विचारी विद्वान को लांछनों से पीटना, बदनाम करना ही मुख्य उद्देश्य रहता है। यह शिक्षा या विमर्श नहीं, बल्कि घातक राजनीति है। अपने ही देश-समाज को दुर्बल करने और तोड़ने की ओर जाती है। छात्रों में ज्ञान-उत्कंठा और रचनात्मकता विकसित करने के बदले एक खास तरह की राजनीतिक मनोवृत्ति पैदा करती है। इसी कारण किसी भी अवसर पर विध्वंस शुरू करना संभव होता है, फिर विविध राजनीतिक ताकतें उसे हवा देती हैं। जो यहाँ से लेकर अमेरिकी विश्वविद्यालयों तक देखा जा सकता है।
शंकर शरण
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)