काफी कुछ बेहतर हुआ इस दौर में

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लॉकडाउन के दौरान हमारे पड़ोस में दो परिवारों के पुरूष अपनी बाल्कनी में कपड़े सुखा रहे थे। दोनों लगभग 13 सालों से पड़ोसी थे लेकिन कभी हाय-हैलो तक नहीं हुई। कपड़े सुखाते-सुख दोनों ने एक-दुसरे को देखा, मुस्कुराए और बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। बाल्कनी से शुरू हुई दोस्ती सोशल डिस्टैंसिंग वाली डिनर पार्टी तक पहुंच गई। ऐसे ही दिल्ली की एक प्रतिष्ठित सोसायटी में पिछले 15 साल से रह रही एक वकील की अपने पड़ोसियों से जान-पहचान इसी लॉकडाउन में हुई। इन दूरियों को खत्म करना शायद वैसे संभव नहीं था। जाने-अनजाने लॉकडाउन हमें कई ऐसी बातें सिखा गया, जिनको या तो हम अपने दैनिक जीवन से निकाल चुके हैं या भूल चुके हैं। इतने लंम्बे लॉकडाउन में सिर्फ पड़ोसी ही हैं जिनसे सोशल डिस्टैंसिंग में बात की जा रही थी, बिना किसी हिचक के आलू-प्याज से लेकर दूध-चीनी तक का स्नेहिल विनिमय हो रहा था।

महानगरों में रहने वाले ढेरों कामकाजी परिवारों ने लॉकडाउन के दौरान एक बार फिर पड़ोसियों के साथ मेलमिलाप करना सीखा। लॉकडाउन में हमने जो दूसरी चीज सीखी, वह है हाइजीन। पहले घर में आते ही मां या दादी असर टोकती थीं कि जूते- चप्पल बाहर ही उतार दे, हाथ-मुंह धुल ले, कपड़े बदल ले, लेकिन इस बात को हममें से अधिकतर लोग सिरे से दरकिनार करते रहे। ऐसे ही फलसब्जियों कों अच्छी तरह से धोकर खाने-पकाने की सलाह भी हमें बेकार लगती थी। रसोई में हाथ धोकर चीजों को छूने की नसीहत भी फालतू लगने लगी थी। साफ- सफाई हमारे संस्कार में ही थी, जिसे हम आधुनिक जीवनशैली की भेंट चढ़ा चुके थे। अब कोरोना के डर के चलते हम दिन में दस बार हाथ-पैर धुल रहे हैं। जूते-चप्पल बाहर उतार रहे हैं, खाने-पीने के सामान को अच्छी तरह से धोने, रसोई में सामान को छूने के तमाम हाइजीन संबंधी कायदे हम दोबारा सीख चुके हैं।

कोरोना ने हमें हमारे सारे संस्कार याद दिला दिए हैं। इस बीमारी ने इंसान का व्यवहार तो बदला ही, जानवरों पर भी इसका असर देखा जा रहा है। एक अध्ययन के लिए दिल्ली के चिडिय़ाघर में सबसे पहले के लॉकडाउन में 15 दिन के लिए जानवरों का व्यवहार, नींद, खाना, मेटिंग आदि पर नजर रखी गई। चिडिय़ाघर में लोग नहीं थे, शांति थी, तो इसके चलते जानवर बिना तनाव के बहुत खुश देखे गए। खासकर कैट फैमिली (शेर, बाघ वगैरह) जो लोगों की उपस्थति से एग्रेसिव हो जाती थी, उनका व्यवहार बेहद सामान्य दिखा। एशियन हाथी और बंदर अपने रखवालों को परेशान नहीं कर रहे थे, पहले की तरह उन्हें अपने आगे-पीछे नहीं घुमा रहे थे। यही नहीं, जानवरों के शौच तक का समय ठीक हो गया और कब्ज जैसी परेशानियां भी जाती रहीं। जानवरों ने बेधड़क होकर ज्यादा से ज्यादा पानी पिया, जिससे बहुत से जानवरों में पानी की कमी से होने वाली बीमारियां नहीं देखी गईं।

ऐसे ही अमेरिका की मोंटाना स्टेट यूनिवर्सिटी के जूलोजिस्ट भी वहां के चिडिय़ाघर में जानवरों के व्यवहार पर रिसर्च कर रहे हैं। हैरानी की जो बात सामने आई, वो यह थी कि लोगों की अनुपस्थति के चलते खतरनाक जंगली जानवर, खासकर शेर और चीते अपने-आप मेटिंग कर रहे थे। पहले उनकी मेटिंग के लिए कर्मचारियों को पूरा माहौल तैयार करना पड़ता था। शोर और वायु प्रदूषण कम होने से शहरों में पक्षियों की चहचहाहट बढ़ गई। दिल्ली में यमुना बायो डायवर्सिटी पार्क के वैज्ञानिक डॉ. फैयाज ने बताया कि पार्क में पक्षियों की गतिविधियां और उनकी आवाजाही बढ़ी है, कुछ प्रवासी पक्षी तो जाने का समय कब का बीत जाने के बाद भी यहीं हैं।

उन्होंने बताया कि शहरों में ऐसे कई पक्षियों की आवाजाही बढ़ी है, जो अब तक आबादी से दूर रहते थे और कभी- कभार ही दिखते थे। छह से ज्यादा प्रजातियों, जैसे कॉमन टेलर बर्ड, ओरियंटल व्हाइट आई, ग्रे हार्नबिल, कॉपर स्मिथ बारबेट, ब्राउन हेडेड बारबेट और अलग-अलग किस्म के सन बर्ड, ग्रीन पिजन को शहरों में लगातार देखा जा रहा है। कुल मिलाकर लॉकडाउन ने हर किसी को बहुत कुछ सिखाया और दिखाया है। जरूरत इस बात की है कि इसे अब भूलना नहीं है। भूल गए तो दुनिया वापस वैसी ही गंदी हो जाएगी, जैसी यह पहले थी।

अनु जैन रोहतगी
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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