फकीर जनता के बीच चहकते चंद अमीर

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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र-गर्व करो हम भारतीय है। गर्व होना चाहिए लेकिन जब कुछ आंकड़े सामने आते हैं तो फिर सवाल ये जरूर जेहन में उठता है कि गर्व कौन सा तबका ज्यादा करे? क्या 68 करोड़ के आसपास गरीब? या फिर वो 101 खरबपति जिनके पास भारत की 73 फीसद दौलत है।।

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र-गर्व करो हम भारतीय है। गर्व होना चाहिए लेकिन जब कुछ आंकड़े सामने आते हैं तो फिर सवाल ये जरूर जेहन में उठता है कि गर्व कौन सा तबका ज्यादा करे? क्या 68 करोड़ के आसपास गरीब? या फिर वो 101 खरबपति जिनके पास भारत की 73 फीसद दौलत है? मोदी राज में इन खरबपतियों की दौलत 73 फीसद की रफ्तार से बढ़ी और गरीब की आय एक फीसद के रेट से। तो ऐसे में कैसा मान लिया जाए कि देश में लोक तंत्र है? क्या साफ नहीं झलकता कि तंत्र राजा का और फायदा अमीरों को? अगर गरीब और गरीब हो रहा हैं तथा अमीर और धन वान तो फिर ये बढ़ती खाई क्या लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है? व्यापारियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में अगर सभी धंधा करने वाले को भी लाभ होता तो भी मान लिया जाता लेकिन लाभ उठाने वाले केवल चंद अमीर। अगर मुकेश अंबानी और अडा़नी जैसे करोबारी हर बरस धनसंपदा और अडानी जैसे करोबारी हर बरस धनसंपदा में दुनिया को पछाड़ने की हालत में आ जाते हैं और सारे छोटे कारोबारी हर बरस धनसंपदा में दुनिया को पछाड़ने की हालत में आ जाते हैं और सारे छोटे कारोबारी बोरिया बिस्तर समेटने के कगार पर पहुंचने लगें तो फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि ये सरकार व्यापारियों की है? दौलतमंदों के आंकड़े बताते हैं कि ये सरकार भी किनकी है और कौन लोग सरकार हैं। एशिया के सबसे रईस मुकेश अंबानी की रिलायंस कंपनी ने पिछले तिमाई में दस हजार करोड़ से ज्यादा का मुनाफा कमया।

क्या भारत के किसी सरकारी कारखाने ने इतना मुनाफा कभी दिया? सवाल तो ये भी उठ सकता है कि क्या भारत के सारे सरकारी कारखाने मिलकर भी इतना मुनाफा दे सकते है? अंबानी व अडानी वो खरबपति हैं जो लोकतंत्र में रईस हुए। खानदानी खरबपति टाटा-बिरला घराने तो रेंग ही रहे हैं लिकिन लोकतंत्र की पैदाईश अंबानी अडानी, सांघवी, मेहता और पटेल जैस गुजराती खरबपतियों की ही देश में पौबारह है। कौन सा ऐसा ठेका है या काम है जो इनके पास नहीं है। सरकार में इनका कौन सा काम है जो इनके पास नहीं है। सरकार में इनका कौन सा काम रोकने की हिम्मत है? देश की अर्थव्यवस्ता रो रही है, बेरोजगारी तलवे घिर रहे हैं और तंगी, बदहाली के किस्से जिस दश में आम हो तो सोचिए वहां चंद अमीरों की बम-बम करोड़ों दिलों पर कैसे हथोड़े चल रही होगी? महज एक साल में ये 101 खरबपति 21 लाख करोड़ का जंप मार जाते हैं तो सोचिए भारत देश का बजट कितना होता है? यानी देश के बजट के बराबर। 2009 में देश में केलव नौ खरबपति थे और अब 101 ये पैदा किसने किए?

पैदा किसने किए? विरोध ना तो अमीरों का है और ना ही निजी क्षेत्र का लेकिन क्या पूंजीवाद स्वस्थ नहीं होना चाहिए? अगर यही हाल रही तो इस बात की गारंटी कौन लेगा कि आने वाले पांच साल में इस देश की 90 फीसद दैलत इनके पास ही होगी तो फिर अंदाजा लगाए कि लोकतंत्र के सिरमौर यानी भारत देश के प्रधानमंत्री कौन इनके सामने चूं कर सकता है? ये होता दिख रहा है। ऐसा तो कभी ब्रिटेन, अमेरिका जैसे पूंजीवादी देशों में भी देखने को नहीं मिला तो फिर भारत जैसे देश में क्यों? क्या एक आसमान भारत के खतरे हमें नहीं दिखाई देते? गरीब की कमाई एक रुपया बढ़ेगी और अमीर की सौ तो फिर कैस हम सकते हैं या सोच सकते है कि देश असली समाजवाद की ओर है जो इस देश असली समाजवाद की ओर है जो इस देश की ठौर है। गरीबों को थोड़ी सी सिब्सिडी का झुनझुना पकड़ा दो और कारोबारियों के लिए बैंकों को तहाबी के दरवाजे पर धकेल दो तो कैसे मान लिया जाए कि देश में सबका विकास हो रहा है? विकास की आखिर ये कौन सी परिभाषा है? जिसमें गरीब पैदा होते जा रहे हैं और अमीर महाअमीर बनते जा रेह हैं? लाख टके का सवाल यही है कि क्या इस बार के आम चुनाव में ये मुद्दा बनेगा?

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