कोरोना से जंग में गांधी के गुरू

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कोरोना वायरस से बड़ा दुश्मन अभी उससे उत्पन्न भय हो गया है। इसने दुनिया भर में सामान्य जीवन को अस्थिर और भ्रमित कर दिया है। इसे देखते हुए गांधी का यह कथन याद आना स्वाभाविक है कि ‘प्राकृतिक कारणों से अधिक लोग चिंता से मर जाते हैं।’ महामारी के राजनीतिक दुरुपयोग का सर्वप्रथम अनुभव गांधी ने भारत में 1896 में फैले प्लेग के बाद अपने परिवार के साथ दक्षिण अफ्रीका की समुद्री यात्रा के दौरान किया था।

यात्री जहाज एस.एस.कौरलैंड जब 18 दिसंबर, 1896 को डरबन बंदरगाह पर पहुंचा तो उसे एक अन्य यात्री जहाज एस.एस.नादेरी के साथ इस आधार पर क्वारंटीन में रखा गया कि जहां से ये जहाज चले हैं, वह बंबई शहर प्लेग से पीड़ित था। पर इसका वास्तविक उद्देश्य नस्लवादियों द्वारा गांधीजी को तंग करना था।

जहाज पर ही स्थानीय अखबार ‘नटाल एडवर्टाइजर’ को दिए साक्षात्कार में गांधीजी ने ब्रिटिश साम्राज्य और उसके उपनिवेशों के विस्तृत सबंधों का प्रश्न उठाते हुए अप्रवासी अधिकारों की बात की और ऐसे दुर्व्यवहार को जन्म देने वाली शक्ति पर आधारित पश्चिमी सभ्यता की निंदा की। गांधी सहित सभी भारतीय यात्रियों को 27 दिन जहाज पर ही रहना पड़ा और 13 जनवरी को जब उतरने की अनुमति दी गई तो गांधीजी को बंदरगाह पर एकत्र हिंसक भीड़ के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा।

संपूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड 3 में अनेक पत्रों और प्रस्तावों द्वारा गांधी नटाल और डरबन में स्थानीय निकायों द्वारा बूबोनिक प्लेग के नाम पर प्रवासियों से भेदभाव का बार-बार उल्लेख और विरोध करते हैं। मार्च-अप्रैल 1904 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग शहर की कुली बस्ती में अचानक प्लेग फैल गया था। गांधीजी के पास खबर पहुंचाई गई कि आप यहां जल्दी आइए, पूरी बस्ती संकट में है। गांधीजी ने जिस समर्पण और सेवा भाव के साथ कार्य किया उससे गरीब भारतीयों के बीच उनका प्रभाव अच्छा-खासा बढ़ गया।

प्लेग के अनुभवों के कुछ वर्ष बाद गांधीजी ‘हिंद स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता के भौतिक और शोषक तत्वों की पहचान करते हैं। उनका मानना था कि भारत को ‘आधुनिक सभ्यता’ के शहरीकरण और उद्योगवाद को खारिज करना होगा। उनके मुताबिक इस सभ्यता का जन्म तो पश्चिम में हुआ, लेकिन यह भारत में घुसपैठ बढ़ाकर उसकी आर्थिक और सांस्कृतिक पर-निर्भरता को बढ़ा रही थी। गांधी का महामारी से अगला सामना दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के तुरंत बाद हुआ। वह 1917 में पश्चिमी भारत में फैले प्लेग और उसके संक्रमण की रोकथाम के लिए स्वच्छता पर जोर देते हैं तथा हैजा, मलेरिया और प्लेग से हुई मौतों का उल्लेख करते हुए उन्हें रोक पाने में भारतीयों की असफलता के कारणों पर चर्चा करते हैं। गांधीजी ने खेड़ा के किसानों और अहमदाबाद के श्रमिकों को राहत देने का एक आधार इन जगहों पर प्लेग फैलना भी बताया था। गुजरात के अहमदाबाद में मई 1915 को उन्होंने कोचरब नामक स्थान पर अपने पहले सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की थी परंतु 1917 में कोचरब में भी प्लेग का प्रकोप फैला।

आत्मकथा में गांधी लिखते हैं कि स्वच्छता के नियमों का बहुत सावधानी से पालन करने पर भी आसपास की अस्वच्छता से कोचरब आश्रम को बचा पाना असंभव था। इसलिए आश्रम के बालक उस प्लेगग्रस्त बस्ती में सुरक्षित नहीं समझे जा सकते थे। ऐसे में सत्याग्रह आश्रम को साबरमती नदी के तट के पास एकांत जगह पर स्थानांतरित कर दिया गया। सन 1918 में महात्मा गांधी बहुत बीमार पड़े। तब वह पेचिस की बीमारी का शिकार होकर मरते-मरते बचे थे, जिसका उल्लेख वह बार-बार अपनी आत्मकथा और संपूर्ण गांधी वाङ्मय,खंड 17 में शामिल अपने पत्रों में करते हैं।

आम धारणा के विपरीत उन्हें तब पूरी दुनिया में विश्व युद्ध से ज्यादा तबाही मचाने वाली स्पैनिश फ्लू की महामारी ने नहीं पकड़ा था। हां उनका परिवार जरूर उससे प्रभावित हुआ था। गांधीजी के बड़े बेटे हरिलाल की पत्नी गुलाब और उनके बड़े बेटे शांति की मौत स्पैनिश फ्लू से ही हुई थी। बहू और पोते की मौत के बाद कस्तूरबा अपने बाकी तीन पोते-पोतियों को लेकर आश्रम आ गईं और उनका वहीं पालन-पोषण किया।

ऊपर किए गए वर्णन के संदर्भ में यदि आज हम कोरोना महामारी के संकट का मूल्यांकन करें तो आधुनिक भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी जीवन शैली के स्वछंदतावाद ने जरूर कहीं न कहीं मानवीय मूल्यों को प्रभावित किया है। आज जबकि महामारी के कारणों, उससे उत्पन्न अव्यवस्थाओं, आवश्यक दवाओं तथा चिकित्सा उपकरणों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है और भूमंडलीकरण का सपना चूर-चूर हो चुका है, तब हमें नवीनतम तथ्यों की रोशनी में महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज की अवधारणा की पुनः व्याख्या करने की जरूरत है। जब महानगरीय समाज ने प्रवासी श्रमिकों को लॉकडाउन के दौर में निस्सहाय छोड़ दिया और उनका पलायन वापस गांवों की ओर हो रहा है तो गांधी का कथन याद आता है कि भारत की आत्मा अपने गांवों में रहती है।

संतोष कुमार
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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