1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी इंदिरा गांधी को पराजित करने में कामयाब अवश्य रही, लेकिन सारे घटक संतरे की फांक की तरह अलग-अलग दिखने लगे। प्रधानमंत्री का चुनाव बमुश्किल हो पाया। वरिष्ठता के आधार पर मोरारजी भाई सबसे मजबूत दावेदार थे। सांसदों का संख्या बल चौधरी चरण सिंह के साथ था तो कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी से जुड़े जगजीवन राम भी एक मजबूत दावेदार बने। संख्या बल के बावजूद चौधरी चरण सिंह की दावेदारी मजबूती नहीं पकड़ पाई। मुख्य मुकाबले में मोरारजी भाई और जगजीवन बाबू ही दिख रहे थे।
श्रीमती गांधी को चुनाव में पराजित कर राज नारायण प्रसिद्धि के शिखर पर थे और वह चौधरी चरण सिंह को मोरारजी भाई के पक्ष में करने में कामयाब हो गए, जिससे मोरारजी भाई प्रधानमंत्री बन गए। यहीं से जोड़-तोड़ और शंकाओं की बुनियाद भी रखी जानी शुरू हो गई। मंत्रिमंडल के गठन के समय मोरारजी भाई ने अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस (ओ) के आधा दर्जन से भी अधिक सांसदों को मंत्रिपरिषद में स्थान देकर अन्य घटक दलों को अचंभित भी किया और निराश भी। विशाल बहुमत वाली जनता पार्टी में मोरारजी भाई समर्थक सांसदों की संख्या 30 से ज्यादा नहीं थी। संख्या बल के हिसाब से क्रमशः लोकदल, जनसंघ, समाजवादी पार्टी और जगजीवन राम समर्थक थे। 4 केंद्रीय मंत्री लोकदल कोटे से, 4 जनसंघ से, 3 सोशलिस्ट तथा 2 जगजीवन राम गुट से थे।
वर्चस्व का नंगा नाच
असंतोष का पहला दृश्य मंत्रिमंडल में भी दिख गया था। जनता पार्टी का पहला अधिवेशन 1 मई को होना था। इसी दिन अध्यक्ष का चुनाव होना भी लगभग तय था। वरीयता के हिसाब से मधु लिमये सबसे सशक्त उम्मीदवार थे, लेकिन समाजवादियों के अंतर्कलह के कारण यह संभव नहीं हो सका। लिहाजा, चंद्रशेखर सर्वसम्मति से जनता पार्टी के अध्यक्ष चुन लिए गए। यह संयोग ही कहा जाएगा कि गैर कांग्रेसवाद की कोख से जन्मी जनता पार्टी के दोनों शीर्ष पदों पर पूर्व कांग्रेसी ही पदासीन हुए। लोकदल और जनसंघ के नेता और कार्यकर्ता असहाय और अपमानित महसूस कर रहे थे। फिर भी जनता पार्टी से बाहर आने का साहस किसी घटक या नेता में नहीं था।
केंद्र में सरकार बनने के बाद अब जनता पार्टी कांग्रेस शासित राज्यों में भी अपनी पैठ जमाना चाहती थी। जनता का विशाल समर्थन और झुकाव भी जनता पार्टी की तरफ था। कांग्रेस शासित राज्यों में सरकार बर्खास्त करने को लेकर प्रस्ताव पास हो गया। बीडी जत्ती उस समय कार्यकारी राष्ट्रपति थे जो कि पूर्व में कांग्रेस के नेता रह चुके थे। अंततः विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई और इसी के साथ घटक दलों के वर्चस्व का नंगा नाच भी शुरू हो गया। जनता पार्टी में शामिल पांचों दलों के नेताओं की भीड़ पार्टी कार्यालय के बजाय अपने पूर्व अध्यक्षों के यहां लगने लगी और कांग्रेस को हराने का लक्ष्य उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया, जितना अपने-अपने गुटों की संख्या बढ़ाने का हो गया।
पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, दिल्ली, यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, गुजरात एवं पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी के हाथ से सत्ता निकल गई। अब राज्यों में अपने-अपने गुटों पर कब्जा करने की होड़ तेज हो गई। नानाजी देशमुख और राजनारायण की बैठकें चौधरी चरण सिंह के रेसकोर्स स्थित आवास पर लगातार होने लगीं। इन दोनों दलों के अधिकांश कार्यकर्ता आंदोलन में भी इकट्ठे थे और आपातकाल में जेल भी गए थे। राज्यों में इन्हीं के विधायकों का संख्या बल भी अधिक था।
पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का अकाली दल, दिल्ली में जनसंघ के विजय कुमार मल्होत्रा, ओडिशा में लोकदल के नीलमणि राउत, गुजरात मे पुरानी कांग्रेस के बाबू भाई पटेल लगभग सर्वसम्मति से पसंद किए गए। पश्चिम बंगाल में सीपीएम नेता ज्योति बसु को बहुमत प्राप्त था। नानाजी देशमुख और चौधरी चरण सिंह की व्यूह रचना रंग लाई। बिहार में कर्पूरी ठाकुर चुने गए। यद्यपि उनका कड़ा मुकाबला कांग्रेस (ओ) के बड़े नेता सत्येंद्र बाबू से था।
हरियाणा में चौधरी देवीलाल को कड़ी चुनौती मोरारजी भाई के करीबी बलवंत राय तायल से मिली, लेकिन देवीलाल विजयी रहे। एमपी में जनसंघ के नेता वीरेंद्र कुमार सकलेचा चुने गए। राजस्थान और यूपी समस्या का केंद्र बने हुए थे। भैरों सिंह शेखावत वरीयता में सबसे ऊपर थे, लेकिन विधायकों का संख्या बल लोकदल के साथ था और पिछली विधान सभा मे भी नेता प्रतिपक्ष महाराव लक्ष्मण सिंह थे जो कि लोकदल के थे। लोकदल की मदद से भैरों सिंह शेखावत चुन लिए गए।
आड़े आ गई उम्र
चौधरी चरण सिंह की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों होने के कारण यूपी पर उनकी खास नजर थी। लोकदल के सदस्यों की संख्या भी वहां अधिक थी। लगभग तय था कि चरण सिंह के पसंदीदा व्यक्ति को ही सीएम बनाया जाएगा। चौधरी साहब यूपी विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष और मुलायम सिंह यादव उपनेता थे लेकिन मुलायम सिंह के नाम का प्रस्ताव आते ही चौधरी चरण सिंह की नजर उनके कद और उम्र पर पड़ती थी। कद भी छोटा था और उम्र भी छोटी थी। वह राम नरेश यादव से पराजित हो गए। हालांकि बाद के दिनों में चौधरी साहब मुलायम सिंह की मेहनत और संगठन क्षमता देखकर अभिभूत रहते थे।
वह हम लोगों के बीच हमेशा दोहराते थे कि मुलायम का सीएम न बनना गलत था। छोटे कद के नेपोलियन और लाल बहादुर शास्त्री अपने-अपने जमाने में काफी सफल रह चुके थे। मुलायम सिंह यादव को 13 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। 1989 में जब वह मुख्यमंत्री बन पाए, दुर्भाग्य से उनको स्व. चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह से ही कड़ा मुकाबला करना पड़ा। लेकिन कड़े संघर्षों के बीच से मुलायम सिंह कुंदन बन कर निकले।
के.सी त्यागी
(लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)