कोरोना महामारी ने पूरे मानव समाज के सामथ्र्य को एक बार फिर चुनौती देकर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि इस कायनात में सभी का वजूद है। इसे जो विस्मरण करके जीवन यात्रा जारी रखना चाहेगा उसे पछताना पड़ेगा। इस वायरस ने उन मुल्को की सपन्नता को भी आइना दिखा दिया है जो अपने आर्थिक विस्तार में सहयोग और संतुलन के संस्कार भूल गए हैं। मानव समाज के सहयोग के लिए प्रकृति के सारे उपादान अनिवार्य हैं लेकिन यह सहयोग एकतरफा तो नहीं हो सकता। आधुनिकता और विकास के नाम पर प्रकृति के वजूद को उदरस्थ नहीं कर सकते। जब भी ऐसा हुआ कुदरत ने अपना सामथ्र्य दिखाया है। इस कायनात में सिर्फ एक नियम ही शाश्वत है वो है सह अस्तित्व इसे गर भूल गए तो खुद का वजूद भी संकट में पडऩे वाला है। पूरे मानव इतिहास पर दृष्टि डालें तो ऐसे मंजर पहले भी दर्ज हुए हैं। रहने और खाने -पीने का रास्ता बीच का हो सकता है। अति सर्वत्र वर्जयते -यह सनातन सूत्र है वजूद का। अंधाधुंध विकास की होड़ में महाशक्तिशाली के तौरपर उभर रहा चीन शायद भूल गया कि आसमां और भी है।
वहां की राजनीतिक बुनावट ऐसी है जहाँ आम नागरिको की आवाज को खामोश कर दिया जाता है। सूचनाओं का तंत्र भी ऐसा है कि वास्तविक तस्वीर सामने नहीं आ पाती। पर तमाम बंदिशों के बाद भी सच की आवाज पूरी दुनिया में गूंजती जरूर है। सच का स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है। कोरोना की मातृ भूमि चीन हालांकि अब भी अपनी लालसाओं के वशीभूत एक ऐसे मुकाम पर दिखाई देता है जहाँ उसे लगता वही सही है और यह उसके हाल के घटनाक्रमों से स्पष्ट हो जाता है। जिस वजह से कोरोना संकट दुनिया के तमाम मुल्को को अपने लपेटे में ले रहा है उसका सटीक उदाहरण है बाजारों में चमगादड़ों की वापसी। लोग फिर उसी कोरोना कारक स्वाद पर लौट रहे हैं। तीसरे फेज से उबरने का दावा करने वाला चीन जिसने शाक -भाजी की तरफ लौटने की पहल की थी उस पर कुछ महीने ही बमुश्किल टिक सका। यह सच है कि उनके यहां जीवन शैली में मांसाहार की अहम् भूमिका है लेकिन इस स्वाद के चक्कर में जीवों का वजूद ही खतरे में पडऩे लग जाये तो उसके नतीजे भयावह होते हैं।
चीन को थोड़ी राहत मिली है पर बाकी दुनिया उस त्रासदी से जूझ रही है। बात वही संतुलन की है। प्रकृति में भी इस संतुलन को महसूस किया जा सकता है। पारिस्थितकी तंत्र का पूरा मर्म ही यही है। सब यहां उसी संतुलन के सूत्र से जुड़े हुए हैं। जब कभी इसका उल्लंघन हुआ उसका प्राकृतिक त्रासदी के रूप में देश -दुनिया को सामना करना पड़ा। भारतीय चिंतन परपरा इसी संतुलन के संस्कार से बंधी हुई है। सर्वे भवन्तु सुखिना के उद्घोष में यानी जो कुछ भी जिस रूप में है वो सह अस्तित्व के सिद्धांत से संचालित है। इस त्रासदी के दौर में यह सुखद प्रतीति कही जा सकती है कि हमारे युवा नवोन्मेषी हो रहे हैं और अपने ढंग से त्रासदी का तोड़ निकाल रहे हैं। वो चाहे बायो टेनालॉजी हो या फिर हार्डवेयर टेनालॉजी -सब तरफ एक समवेत प्रयास इस त्रासदी से उबरने का हो रहा है। प्रेरणादायक उद्बोधनों का भी एक व्यापक प्रभाव देखा जा रहा जो अपने घरों में सरकारी हिदायतों का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं।