समय का फेर

0
280

एक वक्त था कि यूपी की सियासत में सपा सांसद आजम खान की तूती बोलती थी। कई गंभीर मामलों में संलिप्तता के आधार पर इस समय सपरिवार जेल में है। गुरुवार को ही उन्हें रामपुर से सीतापुर जेल में शिफ्ट किया गया है। पत्नी तंजीन फात्मा रायपुर की विधायक हैं। बेटा अबुल्ला आजम की विधायकी धोखाधड़ी के मामले में छिन गयी है। वक्त यह दिन भी दिखाएगाए इसकी उम्मीद तो विरोधियों को भी नहीं रही होगी। लेकिन बीते तीनकृचार दशक के राजनीतिक सफर में कुछ ऐस भी आमाल रहेए जिसने सत्ता से दूर होने पर दिक्कतें पैदा कर दीं। वैसे भी कभी न कभी तो कानून पर अमल के लिए भी राह निकलती हैए भले ही फौरी तौर पर उसकी वजह सियासी लगती होए लेकिन एक वक्त में जो लोग ताकतवर नेताओं के कारण बेबस होते और अत्याचार सहते हैंए उन्हें यकीनन उम्मीद नजर आने लगती है।

जौहर यूनिवर्सिटी में जिन गरीब किसानों की जमीन बिना उनकी मर्जी के ले ली गयी थीए जब उस पर उनहें दोबारा कब्जा हासिल हुआ है तो उनकी खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है। निजाम बदला तो ऐस उत्पीडि़त समूहों का नसीब भी बदला। शासन सत्ता की हनक ही थी कि एक वक्त में भैंसों को खोजने के लिए पुलिस का पूरा अमला जुटा दिया गया था। इसी तरह जनप्रतिनिधि बनवाने के उतावलेपन का ही नतीजा था कि दूसरा जन्म प्रमाणपत्र ईजाद किया गयाए जो आखिरकार गले की फांस बन गया। किरकिरी हुई सो अलग। रामपुर जनपद में वैसे भी आजम खान का सियासी रसूख अवाम के प्रति एक अर्से से ऐसा रहा है कि वक्ता का इंतजार करके अपने बेटे को विधायकी का चुनाव लड़वाते तो ये दिन तो ना देखने पड़ते।

लेकिन सत्ता का नशा होता ही कुछ ऐसा है कि व्यक्ति को लगता है कि अनंतकाल तक के लिए स्थितियां अनुकूल ही बनी रहती हैंए जबकि ऐसा होता नहींए हो भी नहीं सकता। सियासी जीवन में भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इसीलिए विवेकपूर्ण व्यवहार को ही श्रेष्ठ दिया जाना चाहिए। सियासी सफे पलटने पर ऐसे कई किरदार मिलेंगेए जिन्होंने सत्ता का अपने हिसाब से दोहन किया। सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी गुरुवार को अपने पिता के दिनों के साथी आजम खान और उनके परिवार से मिलने सीतापुर जेल गये थे। उनकी टिप्पणी थी सब राजनीतिक साजिश है। सरकार बदले की भावना से काम कर रही है। खुद सांसद आजम खान ने भी कहा कि उनके जेल जाने का फैसला सरकार का हैए जबकि मामला कोर्ट से जुड़ा हुआ है। पर इससे एक बात यह भी स्पष्ट है कि यदि आप सत्ता में हैं तो सारी संस्थाएं हर हाल में अनुकूल हो जाती हैं।

जब सत्ता संग नहीं होती तब ही सही तस्वीर उभर कर सामने आती है। वास्तव में यही लोकतांत्रिक व्यवस्था की त्रासदी भी है। जो जन प्रतिनिधि होता है, व्यवहार में दबंग हो जाता है। यही स्थिति जनसेवकों की होती है। विसंगति यह है कि आजादी के बाद भी इसमें कोई रद्दोबदल नहीं हो पाया है। हालांकि ऊपरी बदलाव की मुनादी जरूर हुई पर असल में उन कारणों को दूर करने की कभी कोशिश नहीं हुई जिससे निरंकुशता का जन्म होता है। पुलिस सुधार की सिफारिशें इसी सही अर्थों में लागू नहीं हो पाईं। मांग उठती रही है। दिल्ली दंगे के बाद एक बार फिर इस मांग ने जोर पकड़ा है लेकिन मालूम है किसी भी नेता या पार्टी को वास्तव में बदलाव नहीं चाहिए क्योंकि हाथ से पुलिस निकली तो फिर तय है हनक भी चली जाएगी। फिर सियासी इरादों से होने वाली प्रवृत्तियों पर स्वतरू रोक लग जाएगी। लिहाजा सवाल किसी एक नेता का नहीं है बल्कि उस खामी का है जिसे जानकर भी बने रहने देने की इच्छा है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here