केजरीवाल की नई राजनीति

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आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री पद की तीसरी बार शपथ लेने के बाद बदले-बदले नजर आये। चुनाव पूर्व जुबानी कटुता को भुलाते हुए सबके साथ मिलकर आगे बढऩे का संकेत और इसी के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आर्शीवाद की चाहत से मोटे तौर पर दो बाते स्पष्ट हैं। एक, पिछले कार्यकाल की तरह उनका ज्यादा से ज्यादा वक्त केन्द्र सरकार से तनातनी में अब नहीं बीतेगा। दो, उन्हें यह भली भांति अनुभव हो चुका है कि मोदी को अब साइकोपैथ कहने से उनके प्रभाव क्षेत्र का विस्तार नहीं होने वाला है। इस चुनाव में खास बात यही नोटिस में आई कि केजरीवाल ने नरेन्द्र मोदी पर चर्चा ही नहीं कि ताकि चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल से बचा जा सके। वजह भी थी इस रणनीतिक बदलाव की। लोकसभा चुनाव में भाजपा को दिल्ली में 54 फीसदी वोट मिले थे और उसने सातों संसदीय सीटें बरकरार रखीं थी।

नंबर दो पर कांग्रेस और आप तीसरे नंबर की पार्टी बन उभरी थी। साफ था कि मोदी को लेकर वोटरों के मन में एक सकारात्मक छवि है। इसलिए उन पर सियासी हमले आप के लिए हानिप्रद साबित हो सकते थे। साथ ही, मोदी की तर्ज पर ही दिल्ली सरकार के कामकाज की ही केजरीवाल ने पूरे चुनाव चर्चा की। इसमें दो राय नहीं, मोहल्ला लीनिक, सरकारी स्कूलों की सुविधाओं का उच्चीकरण तथा बिजलीट्रांसपोर्ट में माफी का ऐलान सीधे तौर पर गरीब और अल्प आय वर्ग के लोगों को आप से जोड़ गया। विरोधी भी स्वीकारते हैं और विश्लेषण कर्ताओं ने भी माना चुनाव के ठीक दो महीने पहले बिजली और ट्रांसपोर्ट को लेकर हुई घोषणाओं का व्यापक असर नतीजों में तब्दील हुआ। तीसरी बार दिल्ली की जनता ने आप को 62 सीटों से नवाजा है वो वाकई अद्भुत है। ऐसा सियासी लोकतंत्र में होता नहीं लेकिन दिल्ली के नतीजे को पूरे देश ने देखा।

इसलिए केजरीवाल पर इस बार अपेक्षाओं का भारी दबाव है। उन्हें विकास को लेकर पार्टी और सरकार की एक विशेष छवि निर्माण करनी है। कहते भी हैं, दिल्ली मॉडल को देश में कई राज्य सरकारें अपनाने की तैयारी कर रही हैं। इसे और पुख्ता बनाने के लिए जाहिर है केन्द्र सरकार की भी मदद चाहिए होगी। यह अच्छे ताल्लुकात बनाने से ही संभव होगा। इसीलिए मोदी को लेकर रूख बदला हुआ है। दिल्ली सरकार ने अधिकार को लेकर भी सर्वोच्च अदालत ने केन्द्र और राज्य के बीच की वास्तविक स्थिति साफ कर दी है। ऐसी स्थिति में इन पांच सालों में केजरीवाल के लिए और दिल्ली की जनता के हित में भी बेहतर होगा कि सब मिलकर काम करें। चुनौतियों के तौर पर सबसे बड़ी चुनौती प्रदूषण की है। राष्ट्रीय राजधानी के आम शहरियों के लिए प्रदूषण मुक्त नहीं बना पाए हैं। साफ पानी की भी अपनी समस्या है। पानी के टैंकरों को कालोनियों में रोजमर्रा की जरूरत के रूप में देखा जा सकता है।

इस लिहाज से जरूरी है कि राज्य सरकार, केन्द्र के साथ मिलकर प्रदूषण और गंदे पानी की चली आ रही समस्या से दिल्लीवासियों को निजात दिला सकें। सरकारी स्कूलों के उच्चीकरण और उनमें अच्छी गुणवत्ता का विस्तार हो। साथ ही मोहल्ला क्लीनिकों के स्तरीय संचालन का भी दायरा बढ़े। दिल्ली को आप सरकार से यही चाहिए। जहां तक केजरीवाल की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की भी चर्चा है, तो फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि मुख्यमंत्री के लिए अभी वह प्राथमिकता में हैं। इसका संकेत अपने शपथ ग्रहण समारोह से ही देश को भी दे दिया है। इस बार किसी भी राज्य के नेता, मुख्यमंत्री को नहीं आमंत्रित किया गया था। पीएम को देश का मुखिया होने के नाते और दिल्ली के भाजपा सांसदों को उनकी स्थानीय भूमिका को ध्यान में रखकर बुलाया गया था। कौन आया, कौन नहीं आया, इससे इतर संकेत यही है कि केजरीवाल इस कार्यकाल को विकास का नया मॉडल के तौर पर खपाना चाहते हैं, जिससे कालांतर में उनके पास राष्ट्रीय राजनीति में कुछ दिखाने के लिए हो। अपनी महत्वाकांक्षा को हालांकि वह कब तक दबा पाते हैं, इस पर नजर जरूर रहेगी।

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