वोहरा कमेटी की रिपोर्ट क्यों दबाई ?

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सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अहम आदेश दिया है। राजनीतिक दलों को आपराधिक रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों के बारे में खुद जनता को देना होगा। कोर्ट ने कहा है कि अगर इस पर अमल नहीं हुआ तो अवमानना की कार्रवाई होगी। ऐसे में सवाल उठता है कि नेताओं, अपराधियों व अफसरों और पुलिस के बीच गठजोड़ को जड़ से खत्म करने की कोशिश क्यों नहीं होती? पीवी नरसिंह राव की सरकार में गठित नरिंदर नाथ वोहरा कमेटी ने इस नेक्सस पर विस्फोटक रिपोर्ट सौंपी थी। रिपोर्ट के उस हिस्से को नरेंद्र मोदी सरकार ने भी सार्वजनिक करने की हिमत नहीं जुटाई जिसे विस्फोटक माना जाता है। जब 1997 में केंद्र सरकार पर रिपोर्ट सार्वजनिक करने का दबाव बढ़ा तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई। कोर्ट ने सरकार की दलील मान ली। जज ने कहा कि सरकार को रिपोर्ट सार्वजनिक करने पर बाध्य नहीं किया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट जिस तरह की चिंता जता रही है, ऐसी चिंता दो साल पहले भी जाहिर की गई थी। 26 सितंबर, 2018 को चीफ जस्टिस दीपक मिश्र की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण को लोकतंत्र के महल में दीमक करार दिया था। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ में जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा भी शामिल थे। चीफ जस्टिस मिश्रा ने इस फैसले में भी 1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद गठति एनएन वोहरा कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र किया। उन्होंने कहा, भारतीय पॉलिटिकल सिस्टम में राजनीति का अपराधीकरण कोई अनजान विषय नहीं है बल्कि इसका सबसे दमदार उदाहरण तो 1993 के मुंबई धमाकों के दौरान दिखा जो क्रिमिनल गैंग्स, पुलिस, कस्टम अधिकारियों और उनके राजनीतिक आकाओं के नेटवर्क का परिणाम था। एनएन वोहरा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पांच अक्टूबर, 1993 को सौंप दी थी।

चीफ जस्टिस मिश्रा ने बताया कि कैसे इसमें सीबीआई, आईबी, रॉके अधिकारियों ने इनपुट दिया कि आपराधिक नेटवर्क समानांतर सत्ता चला रहे हैं। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में कुछ ऐसे अपराधियों का जिक्र भी है जो स्थानीय निकायों, विधानसभाओं और संसद के सदस्य बन गए। पांच जजों की बेंच कई ऐसे पीआईएल की सुनवाई कर रही थी जिनमें दोषी ठहराए जाने से पहले ही आरोपों के आधार पर नेताओं की सदस्यता खत्म करने की अपील की गई थी। हालांकि बेंच ने इस पर कार्रवाई का अंतिम फैसला संसद पर छोड़ दिया। लेकिन वोहरा कमेटी की रिपोर्ट 27 साल बाद भी धूल फांक रही है। कुछ लोगों का कहना है कि इसमें दाऊद इब्राहिम के साथ नेताओं और पुलिस के नेक्सस की विस्फोटक जानकारियां है। इसीलिए कोई भी राजनीतिक दल इसे सार्वजनिक करने की हिमत नहीं जुटा पाई।

मार्च, 1993 में मुंबई धमाकों के बाद सरकार ने गृह सचिव रहे एनएन वोहरा कमेटी बनाई थी। इसका काम क्राइम सिंडिकेट, माफिया संगठनों की गतिविधियों के बारे में हर संभव जानकारी जुटाना था जिन्हें सरकारी अधिकारियों और नेताओं से संरक्षण मिलता है। रिपोर्ट सौंपने के दो साल बाद तक इसे संसद में नहीं रखा गया। तभी 1995 में सनसनीखेज नैना साहनी हत्याकांड हुआ। इससे सरकार पर दबाव बढ़ा। अगस्त, 1995 में वोहरा कमेटी की सेलेक्टिव रिपोर्ट सार्वजनिक की गई। ये रिपोर्ट 100 से ज्यादा पन्नों की है लेकिन सरकार ने सिर्फ 12 पन्ने सार्वजनिक किए। कोई नाम सार्वजनिक नहीं किया गया। रिपोर्ट के मुताबिक नेक्सस में कुछ एनजीओ और बड़े पत्रकार भी शामिल थे। तब राज्यसभा सदस्य दिनेश त्रिवेदी ने सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट सार्वजनिक कराने के लिए अर्जी दी।

सरकार ने विरोध किया। अटर्नी जनरल की बात मान ली गई। जब 2014 में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में सरकार बनी , नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब दिनेश त्रिवेदी ने वोहरा कमेटी रिपोर्ट सार्वजनिक करने की अपील की। लेकिन इंतज़ार जारी है। इस बीच बीते चार आम चुनाव से राजनीति में आपराधिकरण तेजी से बढ़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में इसका जिक्र किया है। 2004 में 24 फीसद सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी, लेकिन 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 30 पर्सेंट और 2014 में 34 पर्सेंट हो गई। चुनाव आयोग के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में 43 पर्सेंट सांसदों के खिलाफ गंभार अपराध के मामले लंबित हैं। अगर कमेटी की रिपोर्ट तक सामने नहीं आती तो फिर कैसे मान लिया जाए कि राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने को मोदी सरकार गंभीर है?

आलोक कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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