हां 11 फरवरी को दिल्ली के मतदाता हिंदू राष्ट्रवादियों को थप्पड़ मारेंगे या उन राष्ट्रवादियों, सेकुलरवादियों को जो भारत के जिलों में, शहरों में एक हिंदुस्तान, एक पाकिस्तान बनने की कल्पना से थर्राते हैं। मैंने पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव से पूर्व अमित शाह द्वारा चुनाव को पानीपत की लड़ाई बतलाए जाने पर इस कॉलम में मोहम्मद अली जिन्ना के एक इंटरव्यू का जिक्र किया था। उसे एक बार फिर पढ़ें-सवाल- मिस्टर जिन्ना, आपकी कल्पना का पाकिस्तान कैसा है? या आप चाहते हैं कि हर जिले में, हर शहर में, हर गांव में पाकिस्तान हो? जिन्ना- हां, मैं यहीं चाहता हूं। सवाल- लेकिन मिस्टर जिन्ना यह तो बड़ी डरावनी कल्पना है? जिन्ना- मैं हर जिले में, हर शहर में, हर गांव में पाकिस्तान चाहता हूं। यह डरावनी कल्पना है? लेकिन इसके अलावा कोई चारा नहीं है। जिन्ना की इस सोच का विश्लेषण करते हुए हिंदी पत्रकारिता के विचारवान महामना राजेंद्र माथुर ने अटूबर 1965 में लिखा- सन 1940 में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पहली बार स्वीकार किया, तब उसके दिमाग में एक असंभव स्वप्न था और हालांकि सात साल बाद देश का बंटवारा हो गया, लेकिन जो सपना मोहम्मद अली जिन्ना के दिमाग में था, वह जमीन पर नहीं उतरा।
उन्हें हर जिले, हर शहर और हर गांव में पाकिस्तान नहीं मिला क्योंकि यह बिल्कुल असंभव और अफलातूनी बात थी कि केंद्र में, राज्य में, जिले में शहर में दो-दो सरकारें हों, जिनमें से एक हिंदुओं पर शासन करे और एक मुसलमानों पर। एक सरकार के प्रति हिंदू वफादार हों और दूसरी के प्रति मुसलमान। लेकिन यह असंभव स्वप्न बरसों से लोगों के दिमाग में था। पाकिस्तान के निर्माण का सच्चा श्रेय न तो अंग्रेजों को है, न मुस्लिम लीग को। उसका श्रेय उस पागलपन और नफरत के वातावरण को दिया जाना चाहिए, जिसने राजनीति को गृहयुद्ध का रूप दे दिया था। मैं राजेंद्र माथुर के इस विश्लेषण में गौरतलब शब्द – ‘राजनीति को गृहयुद्ध का रूप’ मानता हूं। सोचें, इस पर और भारत राष्ट्र-राज्य की मौजूदा राजनीति पर? आज एक नहीं कई जिन्ना हैं! हिंदुओं के भी जिन्ना तो मुसलमानों के भी जिन्ना! हिंदू और मुसलमान दोनों ‘हजार साल के इतिहास के बल’ में एकत्र-सूखी-गीली लकडिय़ों पर न केवल घासलेट छिड़क रहे हैं, बल्कि मारो सालों को, करंट मारो, पिस्तौल तानने, गोली चलाने जैसी चिंगारियों का आह्वान भी लिए हुए हैं। सोचें लोकसभा चुनाव को हुए साल भर नहीं हुआ है। तब भी राजनीति हिंदू बनाम मुस्लिम की पानीपत लड़ाई में हुई थी। और अब साल पूरा होने से पहले ही देश की राजधानी में, दिल्ली में एक मैदान शाहीन बाग है तो दूसरी और रामलीला का है।
एक तरफ देशद्रोही, गद्दार, टुकड़े-टुकड़े गैंग, पाकिस्तानी, मुसलमान की, वाम-सेकुलर राजनीति है तो दूसरी और जयश्री राम, मोदी-शाह का हिंदू अश्वमेध है, जिसके सेनानी, सोशल मीडिया वाले अपने ही हिंदू देश में गृहयुद्ध जैसे चुनाव के बिना सत्ता सुरक्षित होने का भरोसा नहीं रखते। क्या सोचा जाए? इतना भर सोचना है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाले राष्ट्र के सर्वाधिक पढ़ेलिखे, तंत्र-व्यवस्था-संविधान-बौद्धिक जमात के प्रतिनिधि लोगों का महानगर दिल्ली यदि पानीपत की लड़ाई का मैदान बना है, भारत के गृह मंत्री ने शाहीन बाग को करंट मारने का आह्वान किया है तो दिल्ली के लोगों की बुद्धि का फैसला बहुत विचारणीय और सस्पेंस से भरा है? क्या अरविंद केजरीवाल के मुफ्त के टुकड़ों, खैराती राजनीति में लोग वोट देंगे या गृहयुद्ध की राजनीति पर ठप्पा लगाएंगे? दोनों विकल्प, दोनों तरह की राजनीति शर्मनाक है। इसलिए कि देश की राजधानी मुफ्तखोरी, खैरात में झुग्गी झोपड़ी में कन्वर्ट हो कर भारत का वैश्विक मतलब झुग्गी झोपड़ी वाली इमेज का दरवाजा व आईना बने तो वह गौरवपूर्ण तो नहीं होगा। इसके साथ मसला यह भी है कि क्यों अरविंद केजरीवाल-
आप-कांग्रेस-सेकुलर-लेफ्ट ने यह हिम्मत, यह मर्दानगी नहीं दिखाई कि वे अपनी ताकत-बल पर हिंदू बनाम मुस्लिम के बने मैदान को मिटवाने वाली दो टूक राजनीति मोदी-शाह-भाजपा के खिलाफ करते?
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)