केवल गोल-मोल बातें..

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देश को दशा और दिशा देने वाली या कम से कम दशा और दिशा बताने वाली सबसे अहम तीन सालाना परिघटनाएं पिछले तीन दिन में हुई हैं संसद के बजट सत्र के पहले दिन शुक्रवार को दोनों सदनों की साझा बैठक में राष्ट्रपति का अभिभाषण हुआ। फिर दोनों सदनों में आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया गया और उसके अगले दिन शनिवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश किया। लोकसभा चुनाव के बाद आठ महीने में ही ये तीनों काम दूसरी बार हुए हैं। पर सवाल है कि इनसे क्या निकला है? क्या इससे देश की दशा और दिशा का स्पष्ट रूप से पता चल पाया है? लोगों ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा किया और उनको दूसरी बार सरकार बनाने का मौका दिया, उसके बाद से देश किस दिशा में बढ़ रहा है यह इन तीन बातों से पता चलना था पर ऐसा लग रहा है कि सरकार के कामकाज और देश की दशा-दिशा के बारे में सिर्फ गोलमोल बातें हुई हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण से लेकर वित्त मंत्री के बजट तक ऐसा लग रहा है कि देश की संसद चुनावी अखाड़ा बन गई है।

जो बातें चुनाव प्रचार में कही जाती हैं, चुनाव के दौरान जनता से जिस अंदाज वादे किए जाते हैं और जिस तरह के दावे किए जाते हैं वैसा ही कुछ अभिभाषण और बजट दोनों मे देखने को मिला है। राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी कहा गया है कि केंद्र सरकार देश की अर्थव्यवस्था को पांच हजार अरब डॉलर की बनाने के लिए प्रतिबद्ध है और बजट भाषण में भी ऐसा कहा गया। पर सवाल है कि ऐसा कैसे होगा? देश की अर्थव्यवस्था को पांच हजार अरब डॉलर का बनाने के लिए सबसे पहले सरकार को खर्च बढ़ाना होगा और निवेश लाना होगा। सरकार को बुनियादी ढांचे का विकास करना होगा। सिर्फ दावे करने से अर्थव्यवस्था पांच हजार अरब डॉलर की नहीं होगी। पिछले एक साल में जिस रफ्तार से अर्थव्यवस्था बढ़ी है उससे भी इस दावे की हकीकत का कुछ अंदाजा होता है। 2018 में भारत की अर्थव्यवस्था 2726 अरब डॉलर की थी, जो 2019 में बढ़ कर 2935 अरब डॉलर पहुंची। यानी एक साल में 209 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हुई। अगर यहीं रफ्तार रही तो अगले पांच साल में पांच हजार अरब डॉलर पहुंचना नामुमकिन होगा।

वैसे भी जानकारों का आकलन है कि पांच हजार अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के अगले पांच साल तक विकास दर 12 फीसदी से ऊपर रहनी चाहिए। पर वास्तव में इसके सात-आठ फीसदी से ज्यादा होने की संभावना नहीं दिख रही है। हां, यह हो सकता है कि भारत जर्मनी और ब्रिटेन को पीछे छोड़ कर अमेरिका, चीन और जापान के बाद चौथे स्थान पर पहुंच जाए। बहरहाल, अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा करने की बात करना कोई बड़ी बात नहीं है। वह भी अगले पांच साल के लक्ष्य के हिसाब से। कायदे से सरकार को यह बताना चाहिए कि अगले साल देश की अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी हो जाएगी और वहां तक पहुंचने के लिए सरकार ने क्या उपाय किए हैं। ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार ने इस बजट में ऐसा कोई उपाय किया है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पिछले साल के 209 सौ करोड़ डॉलर के मुकाबले ज्यादा बड़ी उछाल लिए होगी। इसके बावजूद सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण में, आर्थिक सर्वेक्षण में और वित्त मंत्री के बजट भाषण में इस बात पर जोर रखा है तो मकसद बहुत साफ दिख रहा है। वह दूसरी बुनियादी बातों से ध्यान हटा कर एक बड़ी बात कह रही है ताकि लोग उस पर चर्चा में उलझे रहें।

दूसरी अहम बात यह है कि सरकार ने इस बार बजट में एक भी बड़ी योजना का ऐलान नहीं किया है। बजट में नहीं कहा जा सकता है कि यह लैगशिप योजना है या अमुक योजना-घोषणा से आम लोगों को बहुत फायदा होने वाला है। सब कुछ रूटीन में हुआ दिख रहा है। न तो सरकार के खर्च बढ़ रहे हैं और न सरकार का कर राजस्व बढ़ रहा है। सरकार ने वित्तीय घाटे का लक्ष्य थोड़ा बढ़ा दिया है। पर उससे भी कोई बड़ा फर्क नहीं आएगा, सरकार खर्च तभी तो कर पाएगी, जब उसके पास पैसा आएगा। बजट में जैसे तैसे अर्थव्यवस्था की गाड़ी खींचने की सोच दिखाई दे रही है। सोचें, अगर अभी अर्थव्यवस्था की गाड़ी जैसे तैसे खींच रही है तो दो साल के बाद अगर दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में आती है तो क्या होगा? बहरहाल, राष्ट्रपति के अभिभाषण में इस बात पर जोर दिया गया कि सरकार ने संशोधित नागरिकता कानून पास करके ऐतिहासिक काम किया है। इससे पहले अलग अलग राष्ट्रपति इस सरकार के कई कामों को ऐतिहासिक बता चुके हैं पर हर ऐतिहासिक काम चाहे वह नोटबंदी हो या जीएसटी हो, इस देश के ऊपर बड़ा बोझ साबित हुआ है। नागरिकता कानून भी देश के ऊपर एक बोझ की तरह है, जिसके नीचे देश और समाज का समूचा ढांचा दबा हुआ है।

शशांक राय
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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