वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जो बजट पेश किया है, उस पर अर्थशास्त्री लोग अलग-अलग राय जाहिर कर रहे हैं। वित्तमंत्री के ढाई घंटे लंबे भाषण में लगभग हर क्षेत्र के नागरिकों को तरह-तरह की रियायतें दी गई है। मध्य वर्ग के लोग इस बात से बहुत खुश हैं कि आयकर की दरें काफी घटा दी गई हैं लेकिन वे यह भी जानना चाहते हैं कि पिछली व्यवस्था में आयकरदाताओं को छूटें मिली हुई थीं, उनके बारे में वित्तमंत्री ने कुछ नहीं बताया और साथ में यह भी कह दिया कि जिन्हें नई व्यवस्था पसंद नहीं है, वे पुराना विकल्प भी चुन सकते हैं। ऐसा कहने में कोई शाब्दिक चालाकी तो नहीं छिपी हुई है? इसी तरह वित्तमंत्री ने यों तो किसानों, छोटे व्यापारियों और उद्योगपतियों तथा विदेशी निवेशकों के लिए बहुत-सी रियायतों की घोषणा की है लेकिन डर यही है कि कहीं उन्हें लेते समय आम नागरिक को कोई परेशानी न हो।
किसानों को बड़े पैमाने पर कर्ज देने की बात कही गई है, हर जिले को निर्यात-प्रधान बनाने का प्रस्ताव है और वहां अस्पताल और मेडिकल कालेज खोलने का संकल्प है, 100 नए हवाई अड्डे बनाने, कई सांस्कृतिक संग्रहालय खड़े करने, विदेश पर्यटन को प्रोत्साहित करने, काम-धंधों का प्रशिक्षण बढ़ाने और इसी तरह के कामों को प्रोत्साहित करने के संकल्प वित्तमंत्री ने प्रकट किए हैं लेकिन पूरा बजट भाषण सुनने के बाद भी यह समझ में नहीं आया कि इन सब कामों के लिए पैसे कहां से आएगा? सरकार की आमदनी को बढ़ाने के उपायों का सुराग कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है। यह भी नहीं मालूम पड़ा कि करोड़ों नए रोजगार कैसे पैदा होंगे? लड़खड़ाती हुई अर्थ-व्यवस्था अपने पैरों पर कैसे खड़ी होगी? पांच ट्रिलियन की अर्थ-व्यवस्था कैसे बनेगी? वित्तमंत्री ने यों तो काफी अच्छा दिखाई पड़नेवाला बजट पेश किया है लेकिन आर्थिक मोर्चे पर सरकार की पिछली विफलताओं को देखते हुए देश के आम आदमी अभी भी असमंजस में पड़े हुए हैं।