21वीं सदी में भारत आदिम!

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उफ! भारत राष्ट्र-राज्य, भारत के हम सवा सौ करोड़ लोग और दुनिया के हम हिंदू! क्या हैं हम? हम राष्ट्र-राज्य में जी रहे हैं या जंगल में? हम इंसान हैं या जानवर? क्या फर्क है हममें और पशु में? ऐसा कोई देश मुझे याद नहीं आ रहा है या वह जमात, नस्ल या वह इलाका स्मृति में नहीं है जो अपने आपको नियम-कायदों-कानून-सभ्यता में चिन्हित करता है और जीता आदिम व्यवहार में है। सोचें, क्या शर्मनाक बात जो भारत के सांसद, भारत का कथित विचारवान श्रेष्ठिवर्ग, मीडिया, नागरिक सब तेलंगाना पुलिस की वाह कर रहे हैं! मायावती, उमा भारती, जया बच्चन, सायना नेहवाल आदि में कुछ ने कहा तेलंगाना पुलिस से दिल्ली और यूपी की पुलिस सीखे तो किसी ने कहा देर आए लेकिन दुरुस्त आए। पुलिस पर फूलों की बारिश है और हमारे वैदिकजी ने लिखा-बलात्कारियों की लाशों को अब हैदराबाद के बाजारों में कुत्तों से घसीटवाना चाहिए और उन्हें बाद में जंगली जानवरों के हवाले कर देना चाहिए। यह दृश्य सभी टीवी चैनलों पर दिखाया जाना चाहिए। तभी हैदराबाद और उन्नाव-जैसी शर्मनाक घटनाओं पर रोक लगेगी।

क्या यह सभ्य, संविधानगत, लोकतांत्रिक, आधुनिक राष्ट्र-राज्य का अनुभव है या चंबल के बीहड़, जंगल में हम हिंदुओं के होने की हकीकत है?क्या यह बुद्धी, विवेक, समझदारी लिए हुए है?दुनिया में याकि बीबीसी आदि तमाम चैनलों ने हैदराबाद, उन्नाव में बलात्कार की घटनाओं और हैदराबाद पुलिस के एनकाउंटर को सुर्खियों के साथ बताया! मतलब बलात्कार, जहां भारत की पहचान है वहीं पुलिस एनकाउंटर याकि जिसकी लाठी उसकी भैंस भी भारत की पहचान है। निश्चित ही दुनिया ने समझा होगा कि भारत वह देश है, जहां जंगल तंत्र, भीडतंत्र, मॉब लिंचिंग की वाह है। गौर करें कि हैदराबाद एनकाउंटर के बाद भारत किस मनोदशा में जीया? वैदिकजी का यह वाक्य मनोदशा का पर्याय है कि हमारी न्याय-व्यवस्था पर लोग लानत मार रहे हैं और पुलिसवालों की बहादुरी के कसीदे काढ़ रहे हैं।

लेकिन यह न्याय व्यवस्था पर लोगों का लानत मारना नहीं है, बल्कि दुनिया को बताना है कि भारत के हिंदुओं को राज करना नहीं आता है! हिंदुओं को इंसान की तरह जीना समझ नहीं आता है। वे बुद्धी-विवेकहीन है! यह कौन सा जीना है जिसमें भूख (सेक्स, पैसे, पावर की) अंतहीन-आदिम है तो अंकुश-न्याय की सोच भी आदिम! हर धर्म, हर सभ्यता, हर देश इंसान की भूख और उसके कायदे की व्यवस्थाएं सुझाए हुए हैं। कहने को हम हिंदू कर्मफल, मर्यादाओं जैसे दस फलसफे लिए हुए हैं लेकिन जीवन जीने के इतिहास ने हमें ऐसा बनाया है कि दोगला, दुहरा व्यवहार व व्यवस्था में जीने को शापित हैं। भयावह भूखे हैं लेकिन उपवास और मर्यादा का ढोंग है। संविधान-कानून का ढिंढोरा है जबकि आचरण जुगाड़ व एनकाउंटर का है।

हां, एनकाउंटर से अपराधियों की लिंचिंग जुगाड़ है। हमारी इस असफलता का साक्ष्य है कि बतौर सभ्य व्यवस्था व लोकतंत्र हम फेल हैं। यह शेष विश्व के आगे इस बात का प्रमाण है कि भारत के नागरिक अपने आपको सभ्य, संस्कारित, समझदार बनाने में असमर्थ हैं। एनकाउंटर धर्म, समाज, संविधान, व्यवस्था, राजनीति सभी की असफलता का प्रमाण है जो न भूख का निदान सोच पाते हैं और न अंकुश में समर्थ हैं।

कितनी शर्मनाक बात है जो सवा सौ करोड़ लोगों की प्रतिनिधि बौद्धिक जमात भी अपराधियों की लिंचिंग की पैरवी करे! मैं विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का घनघोर समर्थक हूं और डॉ. वैदिक की इस राय को प्रकाशित करते हुए पढ़ता रहा हूं कि- सात दिन में ही क्यों नहीं फांसी पर लटका दिया, उन्हें चांदनी चौक या कनॉट प्लेस में क्यों नहीं लटकाया जाए ताकि उन्हें अपने कुकर्म की सजा तो मिले ही, भावी बलात्कारियों की हड्डियां भी कांप जाएं। हमारी जैसी पुलिस है, सरकारें हैं, अदालतें हैं, हमारा समाज है, उसको भी यदि कड़वी गोली नहीं देंगे तो इससे भी भयंकर कांड देखने और सुनने में आएंगे। लचर-पचर कानून से बलात्कार बंद नहीं होगा। भाजपा सरकार चाहे तो इस मामले में कुछ ऐतिहासिक कदम उठा सकती है!…बलात्कारियों की लाशों को अब हैदराबाद के बाजारों में कुत्तों से घसीटवाना चाहिए और उन्हें बाद में जंगली जानवरों के हवाले कर देना चाहिए। यह दृश्य सभी टीवी चैनलों पर दिखाया जाना चाहिए। तभी हैदराबाद और उन्नाव-जैसी शर्मनाक घटनाओं पर रोक लगेगी।

यह सोच मोटे तौर पर भारत में आज सर्वमान्य है। पर क्या यह 21वीं सदी के इंसान, विकसित सभ्य-समाजों-देशों के विकास की प्रतिनिधि एप्रोच है? नहीं, कतई नहीं! मनुष्य की सेक्स भूख हो या और कोई भूख सबको समझते हुए इंसान ने अपने आपको यदि पशुओं-जानवरों से अलग बनाया है, अपने को पृथ्वी का देवता बनाया है तो वजह देवलोक वाले बुद्धि मंथन, व्यवहार और व्यवस्थाओं से है। उसी में हम हिंदुओं ने भी धर्म, समाज, राष्ट्र-राज्य, संविधान-कानून-न्याय व्यवस्था बनाई है। इसलिए जरूरत जंगल राज में लौटने, आदिम अवस्था के कबीलाई-भीडतंत्र, लिंचिंग में लौटने की नहीं है, बल्कि यह सोचने की है कि दुनिया में जहां सभ्य देशों के सभ्य नागरिकों में जैसा व्यवहार है वैसी प्रवृत्तियां हमारे यहां क्यों नहीं बन रही? यह भी सोचा जाना चाहिए कि अंग्रेजों के वक्त न्याय व्यवस्था क्यों चुस्त थी? बलात्कार जैसे अपराध क्या तब कम नहीं थे? भूख पर नैतिक शिक्षाओं से क्या नियंत्रण लगा हुआ नहीं था?

पर कोई सोचने को तैयार नहीं है! सवा सौ करोड़ लोगों का पूरा जीवन तत्काल व्यवस्थाओं, तत्काल जुगाड़ और लंगूरी उस्तरों में ऐसा ढलता जा रहा है कि सब कुछ तात्कालिकता में है। बुद्धि-विचार-सत्य से इतने कोसों दूर हम जा चुके हैं कि तत्काल सेक्स चाहिए, तत्काल पैसा चाहिए, तत्काल पावर चाहिए तो तत्काल पुलिस एनकाउंटर चाहिए और पैसा-पावर पाने के फर्जी नुस्खे भी! सब कुछ तत्काल! समाज के अलग-अलग वर्गों का तत्काल सशक्तिकरण (फिर महिलाओं के सशक्तिकरण, सेक्स आजादी के विभिन्न रूप) चाहिए तो तत्काल किस्म की नई-नई कानूनी लाठियां भी!

मतलब हम स्थायी समाधान नहीं सोचते हैं, दूसरों से तुलना नहीं करते हैं, सत्य, बुद्धि, विवेक से नाता नहीं रखते हैं इसलिए एक बलात्कारी अपने कुकर्म के बाद पीड़िता को मारने, जला देने की हद तक जाता है तो पुलिस उसे मुंह अंधेरे एनकाउंटर में मार कर अपना कर्तव्य निर्वहन समझती है! और जनता? वह तालियां बजाती है!

तभी तो 21वीं सदी में भारत आदिम है!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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