राहुल गांधी अगर ये कर रहे हैं कि सपा-बसपा से हमारा बैर नहीं तो क्या मान लिया जाए कि गठबंधन में कांग्रेस के लिए गुंजाइश अभी खत्म नहीं हुई? क्या सपा-बसपा फिलहाल ये नहीं सोच रही होंगी कि लेना फायदे का रहोगा या छोड़ना नुकासान का?
आगे क्या होगा ये तो वक्त बतायेगा लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि ये प्रियंका गांधी के नाम का ही जादू है कि इस समय राजनीति का हर महारथी प्रचार की रेटिंग में बेहद पीछे है। राजनीति की हर खबर प्रियंका के आने की धमकी के आगे अपनी चमक खो बैठी है। वो जो बरसों से भाइयों और बहनों के आधार पर एक छत्र सामाज्य करते आ रहे थे वो भी इस समय कहीं पीछे छूटते नजर आ रहे हैं। इतनी हाईप महसूस करने में जितनी अच्छी लगती है, उतनी ही चुनौतियां भी सामने खड़ी कर देती है और अगर अपेक्षाओं के मुताबिक नतीजे ना आएं तो कड़वा सच ये भी हैं कि चमकते सितारे डूबने का एहसास भी पल भर में ही कर देता हैं। ना जाने भारत की राजनीति ने ऐसे कितने चेहरे देखे हैं जो आए और धूमकेतु की तरह विदा हो गए, तो लाख टके का सवाल यही है कि प्रियंका के आने से क्या कांग्रेस के सारे रोग दूर हो गए या हो जाएंगे? या फिलहाल केवल लकवाग्रस्त हाथ को ताकत का एहसास हुआ है और वो जल्दी ही उठने लगेगा, हिलने लगेगा और दूसरों को अपने इशारे पर हिलाने लगेगा?
फिलहाल तो प्रियंका के आने के साथ हजारों सवाल सामने खड़े हैं। तीन राज्यों की जीत के बाद सबसे बड़ी जंग में कांग्रेस क्या अपने सबसे बड़े दुश्मन भाजपा का नुकसान कर पाएगी? क्या वो सपा व बसपा की जोड़ी को टक्कर देकर अपनी खोई जमीन का कुछ हिस्सा फिर कब्जा पाएगी? पूर्वाचल के कांग्रेसी अगर ये सोच रहे हैं कि कमलापति त्रिपाठी के बाद पहली बार ऐसी लहर पैदा हुई है तो क्या ये वोट में बदल पाएगी? कांग्रेसी तो कहने लगे हैं कि अगर प्रियंका बनारस से लड़े तो कांग्रेस मोदी एंड कंपनी का मानमर्दन करने में कामयाब हो जाएगा? क्या वास्तव में कांग्रेस ऐसा जोखिम ले पाएगी? राहुल गांधी अगर ये कह रहे हैं कि सपा-बसपा से हमारा बैर नहीं तो क्या ये मान लिया जाए कि गठबंधन में कांग्रेस के लिए गुंजाइश अभी खत्म नहीं हुई? क्या सपा-बसपा फिलहाल ये नहीं सोच रही होंगी कि लेना फायदे का रहेगा या छोड़ना नुकसान का? राहुल का ये कहना भी दिलचस्प है कि वो बैक फुट से नहीं बल्कि फ्रंट फुट से खेलेगी तो क्या माना जाए कि वो सपा-बसपा को पीछे आना होगा? आखिर जिस इलाके का जिम्मा प्रियंका को सौंपा गया हैं अगर वो सपा व बसपा का गढ़ है भाजपा वहां सोशल इंजीनियरिंग से सबको परास्त करके देख चुकी है तो वहां पर कांग्रेस के लिए कितनी संभवनाएं पैदा होंगी?
प्रियंका के सहारे 2009 का इतिहास भी अगर कांग्रेस दोहरा देती है तो यकीनन प्रियंका के आने का मतलब सार्थक होगा, अगर नहीं तो फिर कांग्रेस को क्या ज्यादा फजीहत नहीं झेलनी पड़ेगी? दलित, मुसलमान व ब्रह्मण ही तो कांग्रेस के वोटर थे, एमनडी तीवारी की गल्तियों से सारा वोट बैंक ध्वस्त हो गया तो क्या वो मूल वोटर लौटेंगे? ये भी नहीं भूलना चाहिए कि 2014 के चुनाव में ही कांग्रेस शहरों में सपा-बसपा से कहीं आगे थी और वोट पाने में भाजपा के ठीक बाद। तो क्या इस बार गांव तक हाथ की छाप बढ़ेगी? कांग्रसी तो मानते हैं कि अब फिर कांग्रेस खड़ा हो गई है। लोगों से जुड़ने की कला में प्रियंका पारंगत है और अगर कांग्रेसी ये उम्मीद लगा रहें हैं तो गलत भी नहीं है। सवाल वही क्या ये सब फैक्टर वोट में तब्दील होंगे? कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि दौर जोड़ी का है। अमित शाह व नरेन्द्र मोदी की जोड़ी को टक्कर देने के लिए सपा-बसपा की जोड़ी बनी तो कांग्रेस में भी भाई-बहन की जोड़ी आ गई है। फिल्मी दुनिया में संगीतकारों की सफल जोड़ियों की तरह अब राजनीति में भी जोड़ियों का बोलबाला है तो ये जोड़ी भी कुछ तो करेगी, क्या ये देखते रहिए?