भारत के प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट का क्या मतलब है? एक ही लाइन का जवाब है कि गांव लेवल का जातिवाद अब केंद्रीय कैबिनेट की बुनावट है। आजाद भारत के इतिहास में पहले कभी ऐसे नहीं हुआ जो सात जुलाई को हिंदुवादी प्रधानमंत्री ने किया। कैबिनेट को जातियों में बांटा। जातियों के हिसाब से मंत्री पद बांट कर दुनिया को बताया कि हिंदू धर्म वह नारंगी है जो जातीय फांकों में बंटा हुआ है। कैबिनेट के केंद्रीय मंत्री जात से भारत को चलाते हैं। मुझे ध्यान नहीं पड़ रहा है कि केंद्रीय कैबिनेट की फेरबदल से पहले नगाड़ों का ऐसा कभी शोर हुआ हो कि इतने मंत्री ओबीसी-दलित के होंगे। टीवी चैनलों और मीडिया में कैबिनेट से पहले और बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हेडलाइन मैनेजरों का हल्ला अकल्पनीय था कि 53 मंत्री ओबीसी-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक हैं। वाह! मोदीजी की क्रांति, 77 में से 53 पिछड़े-दलित मंत्री। जैसे जनगणना में जातिगत आंकड़ों का बंटवारा है वैसे ही पिछड़ों, अति पिछड़ों, अनुसूचित जाति और जनजाति की संख्या के अनुसार नरेंद्र मोदी द्वारा मंत्री बनाना और देश व दुनिया में चर्चा करवाना कि मोदीजी ने फलां-फलां जातियों के फलां-फलां लोगों को मंत्री बनाया!
तब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का हिंदू राष्ट्र या जाति राष्ट्र? योग्यता-काबिलियत वाला कैबिनेट या जाति विशेष के होने के नाते लालू छाप कैबिनेट? जैसे लालू भूमिहार-ब्राह्मणों याकि अगड़ों को औकात बतलाते थे वैसे ही अब हुआ और साथ में मैसेज ब्राह्मण-बनिये-अगड़े मोदी के पुजारी और आरती उतारने वाले, जबकि प्रसाद पिछड़े खाएंगे क्योंकि अनुयायी संख्या, उनके वोट अधिक हैं। जाहिर है भारत का केंद्रीय मंत्रिमंडल वह जातिवादी प्रकृति पा चुका है, जिसमें योग्यता, काबिलियत, देश के भविष्य का अर्थ, महत्व नहीं रहा। कभी लालू प्रसाद यादव ने बिहार में जैसी कैबिनेट बनाई थी वैसी जातिवादी सरकार अब केंद्र के लेवल पर स्थापित है। पहली बार भारत के प्रधानमंत्री ने जातियों का हिसाब लगा कर कथित सामाजिक न्याय की वह पिछड़ा-दलित सरकार बनाई है, जिससे आगे वैसे ही वोट पकेंगे, जैसे लालू यादव के पकते थे।
उस नाते माना जा सकता है कि लालू प्रसाद यादव का प्रधानमंत्री बनने और सामाजिक न्याय वाली, मंडलवादी केंद्रीय सरकार का सपना भले उनसे पूरा नहीं हुआ लेकिन वह नरेंद्र मोदी के ओबीसी प्रधानमंत्री और पिछड़ा बहुल कैबिनेट से अब साकार है। मोदी की बड़ी क्रांति है जो गांव, ब्लॉक लेवल पर जातिवादी बस्तियों से शुरू हुई राजनीति पहले जिला स्तर पर, फिर प्रदेश स्तर पर फैली और अब आजादी की 75वीं सालगिरह से पूर्व केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल स्तर तक जा पहुंची है।
जाहिर है नरेंद्र मोदी और अमित शाह को लग रहा है कि हिंदू राष्ट्र याकि हिंदू बनाम मुस्लिम की पानीपत लड़ाई वायरस के रहते फिलहाल सुलगेगी नहीं। इसलिए उत्तर प्रदेश और बिहार की कोर रणभूमि में जातियों के अखाड़े बना कर आगे चुनाव लड़ने होंगे। तभी संयोग मामूली नहीं कि योगी के अगड़े ठाकुरवाद से मोदी-योगी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में खतरा बूझा। ओबीसी के प्रतिनिधि चेहरे केशव प्रसाद मौर्य के घर योगी को बुलवा कर उन्हें महत्व दिलवाया। फिर संघ प्रमुख मोहन भागवत के मुंह से हिंदू और मुसलमान के डीएनए एक होने का मंत्र सुना गया। निःसंदेह यूपी में योगी राज से ओबीसी, ब्राह्मणों की नाराजगी की चर्चा बेबुनियाद नहीं है। मोदी-शाह की सर्वे टीम ने फीडबैक दे रखी होगी। इसलिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में यूपी से जो सात नए मंत्री बने हैं उनमें एक ब्राह्मण को छोड़ छह ओबीसी-एससी की जातीय गणित से हैं तो इनमें कई पत्र और राजनीति के जरिए योगी के विरोध के चेहरे हैं। इससे भी केंद्र ने मैसेज बनवाया कि मोदीजी हैं तो पिछड़े भाईयों-बहनों योगी की चिंता न करें।
हां, कैबिनेट को ओबीसी और जातिवादी बनाने के पीछे उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों की चिंता सर्वोपरि है। मोदी-शाह ने परवाह नहीं की कि इससे अगड़े और भाजपा की बनिये-ब्राह्मण वोटों की नींव हिलेगी। ऐसा इनका इस सोच से है कि ब्राह्मण-बनिये अखिलेश को जा नहीं सकते। वे मंदिर और हिंदू राजनीति के झांसे में बंधे रहेंगे जबकि ओबीसी अपने ओबीसी प्रधानमंत्री के प्रचार में अखिलेश या मायावती का विकल्प सोचना बंद करेंगे और वह ज्यादा जरूरी है।
वोट क्योंकि सब कुछ है इसलिए जैसे लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार बिहार में कैबिनेट बनाते थे वैसे मोदी को केंद्रीय कैबिनेट बनाने में हिचक नहीं हुई। कह सकते हैं महामारी काल ने हिंदुवादी राजनीति से मोहभंग बना दिया है। यों अपना अभी भी मानना है कि यूपी में विधानसभा चुनाव में ऐन वक्त श्मशान बनाम कब्रिस्तान की पिछले चुनाव जैसी बहस बनाई जाएगी। जातिवादी मैसेजिंग अपनी जगह लेकिन। ग्राउंड में मुसलमानों से ब्राह्मण-बनियों को चमकाए रखना जस का तस।
जो हो, मोदी सरकार के हिंदुवादी संतरे का सड़ कर जातियों की फांकों में बदलना भारत राष्ट्र-राज्य का नया मोड़ है! हिंदू सत्ता के लिए किस सीमा तक जाते हैं और समाज को कैसे खंड-खंड बनाते हैं यह आरएसएस-भाजपा की मौजूदा राजनीति से वैसे ही साफ है, जैसे हिंदू इतिहास में होता रहा है।
नया कैबिनेट, भाजपा-संघ को ठेंगा! यों संघ-भाजपा में ऐसे सोचने की क्षमता नहीं है। लेकिन लॉजिक, सामान्य समझ और पार्टी-विचार के बेसिक सत्य में जरा सोचें तो या किसी संगठन को यह बरदाश्त होना चाहिए जो मंत्रिमंडल भी अफसरी-फेसलेस निराकार हो जाए! नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने गजब किया है जो भाजपा-संघ से सलाह करना भी बंद कर दिया और वाजपेयी- आडवाणी वाले वत की संघ नर्सरी से पैदा तमाम नेता और सांसदों की एक- एक करके छुट्टी कर पूरा कैबिनेट अफसरों या निराकार चेहरों का बना डाला। 77 मंत्रियों में से मोदी-शाह को अलग कर अब सिर्फ राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, नरेंद्र सिंह तोमर, अर्जुन मुंडा, मुख्तार अब्बास नकवी को छोड़ कर वाजपेयी-आडवाणी काल का अनुभवी जमीनी नेता कौन है? बाकी सब या तो अफसर या मोदी-शाह की मेहरबानी से बने मंत्री-सांसद हैं। जयशंकर, निर्मला सीतारमण, नए रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव, उर्जा मंत्री आरके सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नारायण राणे, हरदीप सिंह पुरी वे सर्वाधिक महत्व के विभाग और आर्थिक दशा के संचालक मंत्री हैं, जिनका या तो भाजपा से नाता है और या ये कभी आरएसएस और भाजपा की वोट राजनीति में जनाधार वाले रहे?
बाकी राज्यमंत्रियों के स्तर के भी चेहरे नरेंद्र मोदी-अमित शाह की निजी अनुंकपा में बने मंत्री हैं। मतलब बतौर संगठन और वैचारिक वफादारी में आरएसएस-भाजपा से निष्ठा रखने वाले सांसदों की अनदेखी करके जैसे चेहरे सत्ता में हैं, देश की आर्थिक-विदेश नीति में भारी निर्धारक हैं वह असलियत में संघ परिवार के साथ वह धोखा है, जिसका संघ-भाजपा कार्यकर्ता इसलिए अनुमान नहीं लगा सकते हैं योंकि वे अंध भत हैं। आखिर मोदी से जब सत्ता है तो वे यों सोचें, पूछें और किसमें रोकने-टोकने-समझाने का साहस। उस नाते रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावडेकर, हर्षवर्धन की छुट्टी या पीयूष गोयल को रेल से हटाने के फैसलों के पीछे का मकसद भी प्रधानमंत्री द्वारा मैसेज है कि जो भी अपने को चेहरा मानते हैं वे दूध में मखी जितने भर के हैं! मखी की तरह निकाल बाहर फेंके जा सकने वाले। किसी का कोई मतलब नहीं।
मैं रविशंकर प्रसाद या प्रकाश जावडेकर या पीयूष गोयल आदि किसी से रागात्मकता लिए हुए नहीं हूं बावजूद इन्हें इतना जानता-समझता हूं कि इन्होंने अपने बूते भी कुछ पाया और ये भाजपा के चिन्हित चेहरे रहे हैं, इसलिए इन्हें वैसे तो नहीं हटाना चाहिए था जैसे हटाया गया। यही नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री वत के और राज्यों की राजनीति की क्षत्रपता से बनी तासीर का प्रमाण है। उनके लिए कोई कुछ मतलब नहीं रखता है। वे ही अकेले सर्वज्ञ और बाकी सब जगह भरने वाले चेहरे, ताश के पत्ते। सोचें, इन पत्तें से 140 करोड़ लोगों की जिंदगी तय होते हुए। नया मंत्रिमंडल रूप पूरी तरह जातीय-प्रादेशिक मॉडल की केंद्रीय स्तर पर स्थापना है। जैले लालू, ममता और अमरेंदर सिंह का कैबिनेट वैसा ही केंद्र सरकार में मोदी का मंत्रिमंडल! या ऐसी अटल बिहारी वाजपेयी के समय, आडवाणी के समय कल्पना भी हो सकती थी?
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)