हिंदी के नामवर होना

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उनकी उपस्थिति का बड़ा और गहरा अर्थ था। वे हिंदी की बौद्धिक उपस्थिति थे। दूसरे अनुशासनों के प्रख्यातों के बगलगीर होकर हिंदी भाषा-साहित्य का माथा चौड़ा करने वाले लोकप्रिय आलोचक नामवर सिंह। उनकी अनुपस्थिति एक भारी खालीपन है।

बीते तीन-चार दशकों में कॉलेजों-विश्वविद्यालयों और सभा-संगोष्ठियों में नामवर जी के व्याख्यानों ने उनकी मेधा, स्मृति और अद्भुत वक्तृता के कारण लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया। देश में शायद ही कोई कॉलेज-विश्वविद्यालय हो जहाँ के हिंदी विभाग में नामवरजी की कोई पौध न हो ! प्रतापी और संस्थापक प्रोफ़ेसर , विभागाध्यक्ष डॉ नागेंद्र (दिल्ली विश्वविद्यालय) के बाद वे अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी की अकादमिक दुनिया के सबसे प्रभावशाली विषय विशेषज्ञ थे, जिनकी नियुक्तियों और पदोन्नति में निर्णायक भूमिका होती थी। उनकी आलोचना कृतियों–छायावाद, कविता के नए प्रतिमान , दूसरी परंपरा की खोज , वाद-विवाद-संवाद आदि ने खूब ख्याति दी ।

नामवर सिंह हिंदी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओँ और विविध अनुशासनों में पहचान रखते थे। उनकी अखिल भारतीय लोकप्रियता थी।

एक अच्छे शिक्षक के रूप में नामवर जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोध छात्र के दिनों से जेएनयू तक कई पीढ़ी के छात्रों को दृष्टि दी। अपनी मेधा की गहरी छाप छोड़ी।

एक वही थे बीते तीन-चार दशक में जो एक साथ पृथ्वीराज रासो , अपभ्रंश , कबीर , भक्ति कालीन साहित्य..तुलसी ….मुक्तिबोध से धूमिल , अरुण कमल, उदय प्रकाश और…. चंदन पांडे , नीलाक्षी सिंह..नए से नए रचनाकारों पर बोल सकते थे। प्राचीन से आधुनिक साहित्य ही नहीं, नवोदित लेखकों-कवियों की रचनाओं पर उनकी सचेत नज़र रहती थी। रामविलास शर्मा के बाद वे हिंदी के सबसे बड़े नामवर आलोचक थे।

अपने जीवन की सारी उपलब्धियों , भारी लोकप्रियताओं , स्थापनाओं , बहस-विवादों और कृतियों (लिखित-वाचिक) को यहीं छोड़कर नामवर जी विदा हो गए हैं।

”उपन्यास अगर पाठ ही है, तो मर जायेगा। गोदान में गुठली है। ‘रस’ न हो तो कालजयी कृति हो ही नहीं सकता। युगों-युगों तक गोदान पढ़ा जाता रहेगा तो ‘रस’ के कारण, कलाकृति के कारण। क्योंकि वो वर्णन इतिहास, समाजशास्त्र में भी मिल जाएगा। बंधी-बंधायी विचारधारा के आधार पर न मूल्यांकन किया जाए। रचनाकार की कृति में जो राग बना है, उसको देखें। गोदान का यही बड़प्पन है। सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई एमएल वाले अपनी-अपनी विचारधारा ढूंढें ? गोदान विचारधारा को अतिक्रमित करता है। उसके मर्म को जानने के लिए विचारधाराओं के चक्कर में नहीं पडऩा चाहिए।”

”गोदान’ विशाल वाद्य वृंद्य है। सबने अपना-अपना सुर मिलाया है। जो लोग ‘गोदान’ में केवल दलित विमर्श देखते हैं, स्त्री विमर्श देखते हैं, यह देखना गोदान के टुकड़ों को देखना है। संपूर्ण की उपेक्षा करना है। गाय ‘गोदान’ में यदि रूपक है, प्रतीक है, अनेक आदर्शों का प्रतीक बन जाती है। होरी खुद गाय है। गाय की इच्छा रखने वाला खुद गाय है। गाय जानवर या संपत्ति नहीं है। उसके मरजाद, आत्मसम्मान का भी सूचक है। गाय के साथ जमीन भी जुड़ा, है, उसके समूचे मनुष्यत्व का प्रतीक है। उस दौर में प्रेमचंद का वह ‘स्वराज्य’ है। उसके सपने का अर्थ हमें खोजना चाहिए। प्रश्न कर रहा हूं…क्या गोदान प्रेमचंद के लिए वही है जो कैपिटल में मार्क्स के लिए ‘मनी’ थी ? किस गांधी का उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया? ‘गांधीवाद’ नहीं छोड़ा था इसकी और व्याख्या करनी चाहिए। प्रेमचंद को विचारधाराओं के फंडे में न बांधों। प्रगतिशीलों को और सावधानी बरतनी चाहिए।”

बीते वर्ष 28 जुलाई को जन्मदिन पर (उनकी अंतिम सार्वजनिक सक्रिय और सचेत उपस्थिति ) उनकी और उन पर लिखी-संपादित चार पुस्तकों का उन्होंने लोकार्पण किया। रामविलास शर्मा पर लिखी उनकी पुस्तक भी इसमें शामिल है। साहित्य की उखाड़-पछाड़ , खेमेबाजी में उन्हें और रामविलासजी को परस्पर विरोधी के रूप में देखा जाता रहा है। यह दोनों मनीषियों के लेखन , समझ और विमर्श से भी पता चलता है।

पर उस दिन नामवरजी ने माना कि आगरे में तीन-चार साल रामविलासजी के साथ रहकर उन्हें समझने और संवाद का मौका मिला।

इसी क्रम में उन्होंने रामविलासजी को आचार्य शुक्ल के बाद हिंदी का सबसे बड़ा आलोचक ‘घोषित’ कर दिया।
नामवरजी की एक पुस्तक ‘वाद-विवाद-संवाद’ रामविलासजी को समर्पित है , जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘वाद-विवाद-संवाद में रामविलासजी को गुरु मानता हूँ।’ डॉ. नामवर सिंह का हिन्दी आलोचना के विकास-विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान है। वे हमारे समय की बौद्धिक उपस्थिति हैं। उन्हीं के शब्दों में, ‘जिसमें सारा हिन्दी समाज शामिल है|’

वाराणसी से तीस मील दूर चंदौली जिले के छोट से गांव जीअनपुर में 28 जुलाई, 1926 को उनका जन्म हुआ। शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में सम्पन्न हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. (1951) और पी-एच.डी. की उपाधि (1956 में) प्राप्त की। ‘पृथ्वीराज रासो: भाषा और साहित्य’ पर उनका शोध ग्रंथ काफी चर्चित रहा । आज भी इस पुस्तक की मौलिक दृष्टि की विशिष्ट पहचान है। ‘ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान ’ की भूमिका प्रो. पी.एल.वैद्य जैसे लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान ने लिखी थी। इसी दौरान 1953 से 1959 तक उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के प्रिय शिष्य रहे। आचार्य द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य के उस समय के सर्वाधिक यशस्वी प्रोफेसर थे। जोधपुर विश्वविद्यालय, सागर, कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिंदी विद्यापीठ (आगरा), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक के अकादमिक सफर में अनेक पड़ावों से गुजरते हुए ‘गर्वीली गरीबी ‘ वाले मेधावी नामवर ने कई जीवन उपलब्धियां अर्जित की। वे बेहद लोकप्रिय अध्यापक रहे। ‘अध्यापक हो तो नामवर जैसा’ उनके कई पीढ़ियों के शिष्य आज भी कहते हैं। मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य के बहुपठित विद्वान थे। उनकी अद्भुत वक्तृता उन्हें कक्षाओं-सभागारों में हिट करती रही। उनके शिष्यगण बताते हैं कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जे.एन.यू. तक जहां भी रहे उनकी कक्षाएं खचाखच भरी रहती थीं। यहाँ तक कि दूसरे विषयों के छात्र भी उनकी कक्षाओं के गेट-खिड़कियों पर खड़े होकर उन्हें सुनते थे ! हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान , पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, छायावाद, आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां,

ब-कलम खुद, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद-विवाद संवाद आदि उनकी प्रमुख खूब चर्चित पुस्तकें हैं। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी प्रिय आलोचना पुस्तक है। उनका कहना है कि ‘दूसरी परंपरा का मतलब द्वितीय परंपरा नहीं बल्कि एक और परंपरा है। वह गणना के क्रम में दूसरी नहीं थी।’ इसके अलावा उन्होंने ‘जनयुग’ साप्ताहिक (1965-67), ‘आलोचना’ 1967-91 का संपादन किया। पुनर्प्रकाशित ‘आलोचना’ (2000 से) के भी वे प्रधान संपादक रहे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल संचयन चिंतामणि: भाग-3, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध संकलन, आधुनिक रूसी कविताएं, आज की हिन्दी कहानी, नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट , राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द आदि का भी उन्होंने संपादन किया है। समकालीन साहित्य की प्रवृतियों को लेकर उन्होनें अनेक ‘विमर्श’ खड़े किये हैं।

नामवर जी की आलोचकीय स्थापनाएं जितनी जीवंत और मौलिक होती रही हैं, उतनी ही विवादास्पद ! वे चौंकाऊ स्थापनाओं ने लिए भी ख्यात रहे हैं। विचारों में वे अत्यंत प्रगतिशील रहे। इसीलिए वे अपने साहित्य-चिंतन के प्रतिमानों को बार-बार रचते रहते रहे। समयानुरूप बदलते भी रहे। नामवरजी अपनी एक चौंकाऊ स्थापना में ‘आचार्य शुक्ल को ही एकमात्र आचार्य घोषित कर चुके हैं , अपने गुरु द्विवेदी जी को भी नहीं’ !

दूसरी परंपरा की खोज की… पर आलोचक माना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को ही । अपने गुरु आचार्य द्विवेदी को नहीं !

आचार्य केशवप्रसाद मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे अनेक मनीषियों से प्राप्त वैदुष्य-संस्कार तथा आधुनिक भाषाओं के साहित्य का गंभीर अध्ययन उनकी आस्वाद-क्षमता और दृष्टि सम्पनता को विशिष्ट बनाता है। उनकी पारंपरिक और आधुनिक दृष्टि उन्हें दूसरों से अलग करती है। अपने समय के प्रकांड पंडित रामावतार शर्मा (समीक्षक और विद्वान आचार्य नलिन विलोचन शर्मा के पिताजी ) और आचार्य चंद्रधर शर्मा गुलेरी (‘उसने कहा था ‘ याद है न !) जैसे आधुनिक बोध वाले आचार्यों से भी वे खासा प्रभावित थे। संस्कृत के इन परंपरावादी विद्वानों के आधुनिकता बोध , आचार्यत्व को नामवर सिंह सेमीनारों और लिखंत में उल्लेखित करते थे।

हाँ , उनके आलोचकों , दोस्तों-दुश्मनों का मानना था कि नामवरजी ने अपनी क्षमता, मेधा की तुलना में कम लिखा है। वे ‘वाचिक ही मौलिक है’ में अपार विश्वास करते हैं। उनका कहना था कि ‘ वे धन्य हैं जो अमर होने के लिए बोलते हैं पर मैं तो मर-मर के बोलना चाहता हूं। मेरे शुभचिंतक शिकायत करते हैं कि मैं आजकल लिखता नहीं, बोलता हूँ। उन्हें शायद यह मालूम नहीं कि मैं बोलता ही नहीं, लोकार्पण भी करता रहता हूँ, (स्वयं को ग्रंथमोचक बताते हुए)।’

काशी (बनारस) उनको कचोटती रही। वे अक्सर कहते थे कि ‘ (बाबा नागार्जुन के) उस बैल की तरह जो बेच दिया गया, अपने बथान तक बार-बार दौड़ता है|’ इसीलिए वे बनारस आने का बहाना तलाशते रहते थे। ‘तुम्हारी याद के जख्म भरने लगते हैं तो किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।’ बनारस छूटने के बाद वे दिल्ली में स्टार, सुपर-स्टार आलोचक बनकर साहित्य संसार में छा गए । बनारस छूटने का कारण वह ‘भैरवजी का सोटा’ (मान्यता है कि काशी के कोतवाल भगवान काल भैरव के आदेश के बिना काशी में वास संभव नहीं है।) मानते थे। वह कहते थे कि ‘काशी बार-बार मुझे दुत्कारती है फिर भी मैं काशी का हूँ।’ काशी को वे ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति और बहुलतावादी परम्परा का केन्द्र मानते हैं। इस्लाम, बौद्ध , जैन तथा सिख परंपरा को इस विरासत से काटना संभव नहीं है।

नामवरजी के बनारस के दिनों के पुराने मित्र और शिष्य आलोचक डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है — ‘वे दिन बहुत खराब थे। लगभग सात वर्षों तक एम.ए., पी-एच.डी., छायावाद, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान , इतिहास और आलोचना, आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां के लेखक डॉ. नामवर सिंह बेकार रहे।’

साहित्य अकादमी (1971 में कविता के नए प्रतिमान), शलाका सम्मान (हिंदी अकादमी दिल्ली) सहित उन्हें अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार-सम्मान मिल चुके हैं। नामवरजी ने जितना कुछ लिखा-पढ़ा है; आलोचना को समृद्धि दी है, वह हमारे लिए गौरवपूर्ण है। ‘हिंदी के हित के अभिमान’ हैं वह। यह अलग बात है कि उनकी हर आलोचना को समालोचना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। कहीं-कहीं ज्यादा आशीर्वादी और पीठ ठोकी भूमिका में रहे हैं तो कहीं काफी आक्रामक और पूर्वाग्रही ! यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि नामवर का आलोचना के कुशल पारखियों का कहना रहा है। बनारस में कई-कई बार उन्हें सुनने का मौका मिला। खचाखच भीड़-भाड़ में खड़े होकर, जमीन पर बैठकर भी या जगह के अभाव में खिड़कियों-दरवाजे पर खड़े होकर भी उन्हें सुनते हुए लोगों को देखा है। उनमें साहित्य-फाहित्य से दूर-दूर तक नाता न रखने वाले भी होते हैं। जीवन के अनेक क्षेत्रों से जुड़े लोग उन्हें उत्साह पूर्वक देखने-सुनने जाते।

उन्हें अनेकों बार देखने-सुनने को मिला है। सभागारों में चाहे वह अकेले वक्ता हों या अनेक वक्ताओं के बीच अध्यक्ष या मुख्य वक्ता या मुख्य अतिथि की भूमिका में हों, नामवर जी को सुनना सम्मोहक लगता है। साहित्य के प्रति अनुराग जगाता है। मंच पर छा जाने, मंच लूट ले जाने के उनके पराक्रम को जिसने भी देखा हो वह सोच-समझ सकता है कि यूं ही नहीं बनते नामवर।

उन्हें पढते हुए, उनकी आलोचना को समझते हुंए भाषा, स्पष्टता, तार्किकता युक्त जो विचार मिलता है वह बेहद लुभाता है। सम्मोहित करता है। उनकी ’दूसरी परंपरा की खोज’ को साहित्य की राजनीति, खेमेबाजी, पसंद-नापसंद को न जानते समझते हुए भी पत्रकारिता के छात्र के रूप में डेढ़ दशक पहले पढ़ा और आज भी पढ़ते हुए मुझे किसी रोचक, सुंदर उपन्यास या कविता की तरह आनंद देता है। मुझे पता नहीं कि वह आलोचना और परंपरा की खोज विद्वानों और आलोचकों को कैसे लगती है। या फिर उसका चीर-फाड़ कितना हुआ है।

याद है बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के स्वतंत्रता भवन में एक संगोष्ठी में नामवर को सुनते हुए श्रोताओं में बैठे हुए प्रोफेसर आनंद कुमार (जेएनयू) भी साथ बैठे लोगों से उनकी मोहक और मारक ओरेटरी की चर्चा कर रहे थे। जबकि मैं स्वयं पहली बार उसी स्वतंत्रता भवन में आनंद कुमार को सुनकर उनके बोलने की कला से प्रभावित हुआ था।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र , आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डा0 रामविलास शर्मा आदि की मनीषी परंपरा में डा0 नामवर सिंह हिंदी भाषा, साहित्य-संस्कृति के ऐसे गौरव और स्वाभिमान हैं — जिनकी मेधा, तेजस्विता और ज्ञान हमारे लिए प्रेरक है। नामवर की परंपरा यह नहीं है कि उन्हे आप ऋषि और देवता की तरह पूजने लगें। उनको , उनकी स्थापनाओं को हूबहू मान लें। उनकी परंपरा जीरह करने की है। किसी से न डरो। न गुरू से न लोक से …… की है। क्योंकि वह परंपरा जड़ होती है जो हां में हां मिलाकर, स्वस्तीगान कर चुप्पी साध लेती है।

नामवर को पढते हुए और सुनते हुए यही बोध होता है कि आलोचना का काम है जीवन के नजरियों का विस्तार जो मनुष्यता को साहित्य की जमीन पर सुंदर बना सके। दिल्ली-एनसीआर में रहते हुए बीते पांच-छह वर्षों से देखकर यह सुख मिलता रहा कि हमारे नामवरजी सभा कम ही सही पर सभा-संगोष्ठियों उम्र के इस पड़ाव पर भी बराबर उसी बौद्धिक तेजस्विता के साथ सक्रिय रहे।
वे रहेंगे सदैव अपनी कृतियों में। नमन। विनम्र श्रद्धांजलि।

– प्रमोद कुमार पांडे

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