भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का वनवास चल रहा था। वे जंगल-जंगल घूम रहे थे। कई विषयों पर लक्ष्मण और सीता जी के साथ श्रीराम बातें करते थे। वन में जहां कहीं भी ऋषियों के आश्रम दिखते थे, वहां ये तीनों चले जाते थे। एक बार साधु-संतों से बातचीत कर रहे थे तो उन्हें ये मालूम हो गया था कि सभी साधु राक्षसों से बहुत परेशान हैं। रास्तों में श्रीराम कई राक्षसों को मार भी चुके थे। राक्षस ऋषि-मुनियों को चैन से रहने नहीं देते थे। श्रीराम ने आश्रम में सभी से कहा कि मैं भुजा उठाकर संकल्प ले रहा हूं कि मैं राक्षसों का वध करूंगा और
आपके जीवन में शांति लौटेगी। सभी ऋषि-मुनि आपस में बात करने लगे कि जहां-जहां राम जाते हैं, वहां-वहां ये सुख बांटते हैं। श्रीराम के पास किसी को देने के लिए कुछ नहीं था। जो व्यति राजा बनने वाला था, जिसका राजतिलक होने वाला था, वह 14 वर्ष के लिए वनवासी वेश में था। श्रीराम ने सोचा था कि मेरे पास सेना नहीं है, धन नहीं है, ये तो मैं बांट नहीं सकता, लेकिन मैं लोगों को सुख और शांति दूंगा। यही 14 वर्षों तक उन्होंने किया था। इस कथांश से यही शिक्षा मिलती है कि अगर हमारे पास कोई भौतिक साधन नहीं हैं तो हम किसी को शांति तो दे ही सकते हैं। दूसरों को शांति हम तब दे सकते हैं, जब हम खुद खुश रहते हैं। अभाव में भी बहुत कुछ दिया जा सकता है, कम से कम दूसरों को खुशी जरूर दे सकते हैं।