हथियारों में आत्मनिर्भरता क्या संभव ?

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हाल में भारत का जब अपने पड़ौसी देशों चीन व पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ा और उसके साथ युद्ध होने की आशंकाएं बनी है तो ऐसे वक्त में भारत सरकार द्वारा सेना के काम आने वाले 101 उपकरण व हथियारों के आयात पर प्रतिबंध लगाए जाने का फैसला हैरान करने वाला है। जब लड़ाई जैसी नौबत हो तब एकदम आत्मनिर्भर होने का काम कैसे हो सकता है? रक्षा मंत्रालय ने आत्मनिर्भर भारत मिशन में 101 रक्षा उपकरणों के आयात पर रोक लगाई है। इनमें बंदूकों से लेकर जहाज से चलायी जा सकने वाली मिसाइल तक शामिल है। रक्षा मंत्रालय का कहना है कि उसके इस कदम का उद्देश्य देश के मौजूद रक्षा उद्योग को यह जतलाना है कि उसे किन-किन चीजों की जरुरत है? सरकार का दावा है कि उसने इस मामले में रुचि रखने वाले कई स्टेकहोल्डर्स से बात करने के बाद यह कदम उठाया हैं। यह प्रतिबंध इस साल शुरु किया जाएगा तथा आने वाले पांच साल तक लागू रहेगा। इस साल घरेलू पूंजीगत खरीद के लिए सरकार ने 52,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया हुआ है। सरकार का अनुमान है कि प्रतिबंध लगाए जाने से घरेलू उद्योग से लगभग चार लाख करोड़ रुपए के अनुबंध किए जा सकेंगे। सरकार का अनुमान है कि थल सेना के लिए 1.3 लाख करोड़ रू, वायुसेना के लिए 1.40 लाख करोड़ रू व बाकी पैसे से नौसेना के लिए उपकरण खरीदे जाने का रक्षा मंत्रालय का अनुमान है। इसके कारण 2025 तक भारत सरकार अपने उद्योगपतियों के साथ 1.75 लाख करोड़ रुपए का व्यापार करेंगी।

खरीदे जाने वाले सामान में हाईटेक आधुनिक तोपे, असालट राइफलें, सोनार सिस्टम, हल्के लड़ाकू विमान, पहियेवाली बख्तरबंद लड़ाकू गाड़ियां, सतह से हवा में मार करने वाले मिसाइल, इलेक्ट्रानिक युद्ध प्रणाली, फ्लोटिंग डॉक, पनडुब्बी विरोधी राकेट लांचर, कम दूरी के समुद्री टोही विमान, हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइल आदि शामिल हैं। सरकार का मानना है कि इन सभी उपकरणों का निर्माण भारत में निजी क्षेत्र में किया जाने लगेगा। स्टाकहोम के इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीटयूट के मुताबिक 2014 से 2019 के बीच भारत ने 16.75 बिलियन डालर के रक्षा उपकरणों का आयात किया। वह दुनिया के इस क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा विदेशी उपकरणों का खरीददार होने वाला देश था। यह संस्थान दुनिया भर के विभिन्न देशों द्वारा रक्षा उपकरणों की खरीद फरोख्त पर नजर रखता है। भारत सरकार ने 2021 से 2025 तक भारत के निजी क्षेत्र में न केवल यह सभी उपकरण बन सकने का अनुमान लगाया है बल्कि वह हथियार निर्यात मे भी समर्थ होगा। याद दिला दे कि इस क्षेत्र में भारत का यह पहला प्रयास नहीं है। 1962 में चीन के साथ युद्ध होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु व रक्षा मंत्री वी के कृष्णा मेनन ने भी यही बात कही थी। फिर प्रणब मुखर्जी ने 2006 में रक्षा मंत्री रहते हुए कहा था कि आयुध सामग्री के विश्व बाजार में भारत मात्र एक खरीददार बन कर नहीं रह सकता है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि 2012 में राफेल विमानों की खरीद में इसलिए देरी हुई थी क्योंकि तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार राफेल विमान कंपनी पर टेक्नालाजी दिए जाने, तकनीक हस्तांतरण के लिए दबाव डाल रही थी।

रक्षा मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक हर साल तेजी से बढ़ता भारत का रक्षा बजट व 1999 के कारगिल युद्ध के बाद सरकार ने इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के बारे में सोचना शुरु किया था मगर तब से अब तक कोई ठोस कदम देखने को नहीं मिला। याद दिलाना जरुरी है कि 2014 में सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने भी इसमें आत्मनिर्भरता हासिल करने की बात कही थी मगर कुछ ठोस देखने को नहीं मिला। सवाल यह है कि इतने कम समय में हमारा देश इस क्षेत्र में कितना व कैसे आत्मनिर्भर हो पाएगा? जवाब आने वाले समय में मिलेगा। इन उत्पादों की खरीददारी में न केवल काफी समय लगता है बल्कि उनको विकसित करने पर निजी क्षेत्र के उद्योगों को बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है। अब वे चाहते हैं कि उन्हें इस बात की गारंटी दी जाए कि सरकार उनके द्वारा तैयार सामान खरीदेगी। हमारे देश के उत्पादों को विकसित करने व उनको तैयार करने व खरीदने में कितना व कैसे समय लगता है इसके कुछ उदाहरण है। हमने रुस की मदद से 7.62 X 39 एमएम के 203 असाल्ट राइफल अमेठी स्थित आर्डेनिस फैक्टरी में बनानी शुरु कर दी थी। मगर आज तक इनकी कीमतें तय न किए जाने के कारण इनकी खरीद नहीं की जा सकी। प्रतिबंधित चीजों में से कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें हमारे देश के निजी क्षेत्र में विकसित तो कर लिया है मगर अब तक उनका उत्पादन शुरु नहीं हुआ है। इनमें लाइट कामबैट हेलीकाप्टर व लाइट ट्रांसपोर्ट विमान शामिल है। सरकार के रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि निर्माण की तकनीक हमारे पास है। जरुरत पड़ने पर हम उन्हें जल्दी ही तैयार कर लेंगे। प्रतिबंधित उपकरणों की सूची में ब्रम्होस क्रूज मिसाइल भी शामिल हैं जो कि रुस के सहयोग से तैयार की जा रही है। उसमें इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम पुर्जे व उपकरण रुस से आयात किए गए थे।

समझा जाता है कि जरुरत पड़ने पर रक्षा क्षेत्र के सरकारी उद्योग इन्हें सिर्फ एसेंबल ही करते है। इन्हें भारत ने खुद विकसित नहीं किया है। उद्योग चाहता हैं कि सरकार उन्हें इस बात की गारंटी दे कि वह यह स्वीकार करेगी कि उनके द्वारा बनाए जाने वाले उपकरण आयातित उपकरणों की तुलना में मंहगे होंगे व उन्हें इतनी तादाद में बनाएंगे ताकि उन्हें घाटा न उठाना पड़े क्योंकि ऐसा करने में उन्हें काफी पैसा व समय लगाना पड़ता है। उन्हें खतरा है कि सरकार शायद इनका आयात न करने लगे क्योंकि टकराव के हालात को देखते हुए सरकार कोई भी कदम जल्द उठा सकती है। रक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि आत्मनिर्भर बनने के इरादे की सफलता सरकार की भावी नीतियों पर ही निर्भर करेगी। वैसे सरकार ने जो सूची बनाई है उनमें कई उपकरण तो भारत में पहले से ही तैयार किए जा रहे है। इस तरह की सूची अफसर वैज्ञानिकों के साथ मिलकर तैयार करते है ताकि उन्हें लागू करने में ज्यादा दिक्कत न हो। उनके मुताबिक देश में पहले से ही भारत डायनेमिक्स नामक सरकारी कंपनी मिसाइल बना रही है। रक्षा उत्पादन व अनुबंध संगठन द्वारा उपलब्ध करवाई गई तकनीक के आधार पर भारत फोर्ज व टाटा मिलकर एटीएस तोपें बना रहे हैं जो कि 40 किलोमीटर तक की दूरी तक 15 सेंकेड में तीन बार गोले बरसा सकती है। दिक्कत तब आती है जब सरकार साड़ी खरीदने गई उस महिला की तरह बरताव करती है जो कि दुकानदार से कहती है कि मुझे अमुक रंगवाली अमुक कपड़े वाली साड़ी अमुक दाम में चाहिए व निर्माण के दौरान सेना की जरुरतों के मुताबिक अपने उपकरणों का क्यूआर क्वालिटी से जरूरत बदलती रहती है। तभी खतरा इस बात का है कि कहीं सरकार का यह इरादा भ जुमला बनकर न रह जाएं।

विवेक सक्सेना
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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