हट गया परदा

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संत श्री उड़िया बाबा की बड़ी ख्याति थी। लोग अपनी हर तकह की समस्याओं का हल पाने उनके पास आते। एक बार व्यापार में घाटा झेल रहा एक व्यक्ती उनके पास आया बोला, ‘महाराज’ कुछ समय पहले तक मेरी स्थिति बहुत अच्छी थी। अच्छा व्यापार चल रहा था, धन बरस रहा था। सब लोग हर पल मुझे घेरे रहते थे। चाटुकारों से मैं हर पल घिरा रहता। वे मेरे सच्चे साथी होने का दम भरते, लेकिन आर्थिक संकट के गहराते ही सबने मुझसे कन्नी काट ली है। अब तो लगता है कि मेरा तन और मन दोनों बीमार हो गया है। जल्दी ही मुझे सही दिशा नहीं मिली तो मैं मौत के मुंह में चला जाऊंगा। उडिय़ा बाबा बड़े ध्यान से उसकी कहानी सुन रहे थे। उसकी बात सुनकर बाबा कुछ देर मौन रहे।

फिर एकाग्र होकर बोले, ‘यदि मानव सुख या संपत्ति को निजी वस्तु न मानकर उसे सेवा, परोपकार के रूप में वितरित करने का संकल्प ले तो ईश्वर उससे प्रसन्न होकर स्वयं उसे विपत्ति से बचाने का प्रयास करते हैं। निर्धन व असहायों की सेवा के बदले मिला आशीर्वाद भी व्यक्ति की विपत्ति व दुख को कम करने में मददगार साबित होता है।’ कुछ रुक कर बाबा फिर बोले कि कई बार सुख-संपत्ति, प्रगति एवं लक्ष्मी की कृपा व्यक्ति की आंखों पर ऐसा परदा डालती है कि वह उसे वितरित करने को तैयार नहीं होता। यदि तुम नए सिरे से अपने जीवन का प्रारंभ करके मेहनत व लगन से काम करो और धन-दौलत को गरीबों, भूखों एवं जरूरतमंदों में वितरित करने का प्रण करो तो तुम्हें असीम शान्ति मिलेगी। ‘व्यापारी ने कहा, आपने मेरी आंखे खोल दीं। अपने चाटुकारों की बजाय विपत्ति के सच्चे साथियों को मैं हर वक्त अपवे सीने से लगाकर रखूंगा।’ इसके बाद वह संतुष्ट मन से वहां से चला गया।

बेला गर्ग

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