जुलाई की शुरुआत में जब परिसीमन आयोगजम्मू कश्मीर गया था, तो नई सीटों की रूपरेखा तय करने के सिलसिले में कई दलों और संगठनों से चर्चा हुई। उनकी ओर से कई सुझाव भी मिले। सबसे दिलचस्प सुझाव था कश्मीरी पंडितों के संगठन का। उन्होंने कुछ ऐसी फ्लोटिंग कन्स्टिचूअन्सी बनाने की गुजारिश की है, जहां लड़ने और वोट देने का हक सिर्फ जम्मू-कश्मीर से पलायन करने वाले कश्मीरी पंडितों के पास रहे। वे देश के किसी भी हिस्से से इस आरक्षित सीट पर मतदान कर सकें, यहां से लड़ सकें।
कश्मीरी पंडितों ने अपनी इस मांग के समर्थन में हवाला दिया है सिक्किम के सांघा निर्वाचन क्षेत्र का, जो देश की इकलौती फ्लोटिंग कन्स्टिचूअन्सी है। यह देश का एकमात्र निर्वाचन क्षेत्र है, जिसकी कोई भौगोलिक सीमा नहीं। इस सीट से राज्य के 51 मठों से जुड़े बौद्ध भिक्षु ही चुनाव लड़ सकते हैं। मतदान की इजाज़त भी सिर्फ उन्हीं को है। कश्मीरी पंडितों का दावा है कि इस वक़्त उनके लिए हालात काफी मुश्किल हैं। लिहाजा, उन्हें भी फ्लोटिंग निर्वाचन क्षेत्र जैसी सहूलियत दी जानी चाहिए।
बीजेपी के एक वरिष्ठ कश्मीरी पंडित नेता अश्विनी कुमार का कहना है, ‘भारत में धार्मिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। यही वजह है कि हमने सिक्किम के सांघा का हवाला दिया, जहां बौद्ध भिक्षुओं को अपनी अनोखी पहचान को सहेजे रखने के लिए एक निर्वाचन क्षेत्र मिला हुआ है। इस व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई थी, लेकिन अदालत ने भी इसे बरकरार रखा। हम भी उसी तरह के मॉडल के लिए गुजारिश कर रहे हैं, क्योंकि यह चीज़ हम पर भी लागू होती है।’
सिक्किम का सांघा मॉडल संविधान के हिसाब से सही है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के मामले में अभी तक ऐसा नहीं है। साथ ही, परिसीमन आयोग की अपनी भी सीमाएं हैं। इस तरह की नई व्यवस्था बनाने की राह में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 भी अड़चन है, जिसमें सिर्फ अनुसूचित जनजाति के लिए नई आरक्षित सीटें बनाने की इजाज़त है।
इस अड़चन की जानकारी कश्मीरी पंडितों के संगठन को भी है। यही वजह है कि उन्होंने गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय से ख़ासतौर पर जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, 2019 में संसोधन की मांग की है, ताकि बिना भौगोलिक सीमा वाले निर्वाचन क्षेत्र के गठन का रास्ता साफ़ हो सके।
सिक्किम में विधानसभा क्षेत्र संख्या 32 सांघा मठ संघों की गुजारिश पर सिक्किम राज्य परिषद के लिए 1958 में बनी थी। 1975 में जब सिक्किम भारत का राज्य बना, तब भी सांघा सीट के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। भारत का राज्य बनने से पहले सिक्किम में सांघा जैसे कई अनूठे क़ानून थे। संविधान का अनुच्छेद 371 (एफ) सिक्किम के उन सभी क़ानूनों की रक्षा करता है।
यही वजह है कि जब सांघा सीट के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई, तो अदालत ने इस विशेष प्रावधान को ख़त्म करने से मना कर दिया। सर्वोच्च अदालत ने माना कि सांघा सांस्कृतिक रूप से पिछले 300 वर्षों से सिक्किम की परिषद के निर्णय लेने का हिस्सा थे। उनका अस्तित्व राज्य के चोग्याल राजाओं के समय से था। इसीलिए अदालत ने सांघा सीट को धर्म आधारित आरक्षण नहीं माना और उसे संवैधानिक बताया।
अश्विनी कुमार और दूसरे कश्मीरी पंडितों का कहना है कि अगर कश्मीर में सांघा मॉडल नहीं अपनाया जा सकता, तो केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी जैसे मॉडल पर गौर किया जाना चाहिए। पुडुचेरी में 30 सीटों पर चुनाव होता है। लेकिन 3 सीटें ऐसी भी हैं, जिन पर केंद्र सरकार सदस्यों को नामित करती है। इस व्यवस्था को मद्रास हाई कोर्ट ने भी बरकरार रखा है।
कश्मीरी पंडितों के संगठनों का कहना है, ‘हमने इस मसले को परिसीमन आयोग से लेकर चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय तक उठाया। कश्मीरी पंडित दशकों तक विधानसभा में अपनी नुमाइंदगी नहीं कर पाए। अगर सांघा या पुडुचेरी मॉडल पर जल्द अमल नहीं किया गया, तो हम लोग फिर से विधानसभा में अपनी नुमाइंदगी नहीं कर पाएंगे। यह असाधारण स्थिति है, तो इसका समाधान भी असाधारण होना चाहिए।’
अनुभूति विश्नोई
(लेखिका पत्रकार और स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)