सोनभद्र से बेलछी जैसी उम्मीदें!

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कांग्रेस नेताओं की आंखों में उम्मीद की चमक लौटी है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में दस आदिवासियों की सामूहिक हत्या के बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने जिस अंदाज में इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया उससे कांग्रेस नेताओं में उत्साह है। उनके जेहन में 42 साल पहले बिहार के बेलछी की घटना की तस्वीरें घूमने लगी हैं। वे मानने लगे हैं कि सोनभद्र के उम्भा गांव की घटना तब के पटना जिले के बेलछी की पुनरावृत्ति है। यह प्रियंका गांधी का बेलछी मोमेंट है। कांग्रेस नेता इसमें कई किस्म की समानता देख रहे हैं। पर असलियत यह है कि घटनाओं की समानता को छोड़ दें तो राजनीतिक हालात में भिन्नता ज्यादा है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सोनभद्र के उम्भा गांव की घटना पर प्रियंका गांधी ने जो तेवर दिखाए और आगे बढ़ कर राजनीतिक पहल अपने हाथ में ली, उससे उन्होंने साबित किया कि उनकी सिर्फ नाक या बाल अपनी दादी से नहीं मिलते हैं, बल्कि उनकी राजनीति में भी कुछ साम्य है। 42 साल पहले ऐसी ही राजनीति इंदिरा गांधी ने की थी। 1977 के बसंत में वे लोकसभा चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हुई थीं और गर्मियों में बेलछी नरसंहार हुआ था। बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का चुनाव क्षेत्र रहे हरनौत के बेलछी में 11 दलितों की हत्या कर दी गई थी। तब यह पटना जिले का हिस्सा होता था। और केंद्र व राज्य दोनों जगह जनता पार्टी की सरकार थी।

करीब ढाई महीने की लंबी जद्दोजहद के बाद इंदिरा गांधी अगस्त में बेलछी गई थीं। सोनिया गांधी के जीवन पर लिखी जेवियर मोरो की किताब ‘द रेड साड़ी’ में इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा का ब्योरा सोनिया गांधी की जुबानी दर्ज है। तब सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि इंदिरा गांधी बेलछी जाएं। पर इंदिरा की जिद पर अंततः सोनिया ने उनका सामान पैक किया और वे पटना के लिए रवाना हुईं, जहां से उनको बेलछी जाना था। भारी बरसात और चारों तरफ फैले कीचड़ के अथाह समुद्र में जीप, ट्रैक्टर और अंततः हाथी पर बैठ कर इंदिरा गांधी बेलछी पहुंची थीं। गांव के लोगों ने देवदूत की तरह उनका स्वागत किया था और उनको वोट नहीं देने के लिए माफी मांगी थी।

बेलछी की यात्रा ने इंदिरा गांधी को बड़ी ताकत दी और उनका मनोबल बढ़ाया। उसके बाद ही वे हार के सदमे से निकलीं और जनता सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। महज ढाई साल के अंतराल में जनता सरकार गिर गई और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारी बहुमत के साथ सरकार में वापसी की। बेलछी और उम्भा गांव की घटना में समानता सिर्फ इतनी है कि उम्भा घटना से भी दो महीने पहले ही कांग्रेस केंद्र और राज्य दोनों जगह बुरी तरह से हारी है और बेलछी में दलित मारे गए थे जबकि उम्भा में आदिवासी मारे गए हैं। एक समानता यह भी है कि इंदिरा गांधी की शक्ल सूरत से मिलते चेहरे वाली प्रियंका गांधी इस मामले में राजनीति कर रही हैं।

इसेक अलावा बाकी तमाम चीजें भिन्न हैं। राजनीतिक हालात अलग हैं और कांग्रेस पार्टी बुरी तरह से बिखरी हुई है। उस समय जनता पार्टी कई छोटी छोटी पार्टियों को मिला कर बनी थी और उनके अंतर्विरोध इतने थे कि उनका बिखरना पहले से तय था। इसके उलट अभी सरकार चला रही भाजपा किसी जमाने की कांग्रेस पार्टी जैसी मजबूत और एकजुट है और उसके पास नरेंद्र मोदी के रूप में इंदिरा गांधी जैसा करिश्माई नेता है। उस समय चुनाव हारने के बावजूद कांग्रेस हाशिए पर नहीं चली गई थी और न अप्रासंगिक होने का खतरा झेल रही थी। कांग्रेस तब भी सबसे संगठित राजनीतिक ताकत थी। इस समय कांग्रेस की स्थिति बेहद खराब है। पार्टी बुरी तरह से बिखरी हुई है और पिछले दो महीने से बिना राष्ट्रीय अध्यक्ष के है।

कांग्रेस ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह सोनभद्र के उम्भा गांव की घटना का बड़ा राजनीतिक लाभ ले सके। इंदिरा गांधी ने जैसे बेलछी का लाभ लिया था वैसे उम्भा की घटना का लाभ लेने के लिए कांग्रेस को अगले दो-तीन साल तक लगातार इसी अंदाज में मेहनत करनी होगी और वह भी बिल्कुल विपरीत परिस्थितियों में। एक-एक करके उसकी सरकारें हाथ से निकल रही हैं, मीडिया का साथ उसे नहीं मिल रहा है, अपना नेतृत्व चमत्कार करने में सक्षम नहीं दिख रहा है और सबसे ऊपर सत्तारूढ़ दल अपनी गलतियों और कमियों से सबक लेकर तुरंत उसे ठीक करने में माहिर है। इतिहास में कभी भी कांग्रेस का मुकाबला ऐसी राजनीतिक ताकत से नहीं हुआ है।

इसलिए सोनभद्र से बेलछी जैसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा यह उम्मीद कर सकती है कि इससे कांग्रेस नेतृत्व का हौसला बढ़े, उसका मनोबल लौटे। अगर यह भी हो जाता है तो उससे कांग्रेस को अगले कई बरसों तक राजनीति करने की ताकत मिलेगी। अगर उम्भा से लौट कर प्रियंका यह मैसेज देने में कामयाब रहीं कि भाजपा से लड़ना उत्तर प्रदेश की बाकी पार्टियों के बस में नहीं है और वे इसी अंदाज में भाजपा से लड़ती रहेंगी तो इससे कांग्रेस कार्यकर्ताओं में हौसला लौटेगा, कांग्रेस का उजड़ना थमेगा और देश के सबसे बड़े प्रदेश में कांग्रेस की वापसी की राह बनेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है। इसलिए कांग्रेस को दिल्ली की लड़ाई उत्तर प्रदेश में ही लड़नी होगी।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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