केंद्र सरकार सूचना के अधिकार कानून में बदलाव करने जा रही है। इसमें संशोधन के लिए लाया गया विधेयक लोकसभा से पास हो गया है और राज्यसभा में विपक्ष इसका जोरदार विरोध कर रहा है। विपक्षी पार्टियां अड़ी हैं इस बिल को प्रवर समिति के पास भेजा जाए। सरकार यह बिल अचानक ले आई थी। विधेयक की प्रति एक दिन सरकुलेट की गई और दूसरे दिन इसे पेश कर दिया गया और बहस के बाद इसे लोकसभा से पास भी कर दिया गया। लोकसभा को पूरी तरह से नियंत्रित करने वाले अपने बहुमत की वजह से सरकार ने विपक्ष की इस मांग पर ध्यान ही नहीं दिया कि यह बहुत महत्वपूर्ण कानून है और इस पर ज्यादा विस्तार से विचार की जरूरत है।
विपक्ष का कहना था कि सरकार इसकी गंभीरता को नहीं समझ रही है तभी उसने राज्य मंत्री से बिल पास कराया है और राज्य मंत्री से ही चर्चा का जवाब दिला कर बिल पास करा लिया है। विपक्ष की चिंता बहुत जायज है क्योंकि यह कोई मामूली कानून नहीं है। आजाद भारत के इतिहास में यह कानून मील के पत्थर की तरह है। भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और सरकार के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए किसी भी सरकार द्वारा की गई यह सबसे बड़ी पहल है। इस कानून ने आम लोगों को अधिकार संपन्न बनाया। उनको सवाल पूछने और उसका जवाब हासिल करने का अधिकार दिया।
सरकार चाहे जो कहे पर वह इसमें जो बदलाव करने जा रही है उससे यह कानून कमजोर होगा, सूचना आयोग सरकार का मतहत बनेगा और उसके ऊपर निर्भर होगा, पारदर्शिता के प्रयास प्रभावित होंगे और आम लोगों के हाथ से उनके सशक्तिकरण का एक बड़ा हथियार छीन जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन का मंत्र है कि न खाऊंग, न खाने दूंगा तो फिर खाने वालों को एक्सपोज करने वाले सबसे प्रभावी कानून में क्यों बदलाव किया जा रहा है?
सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि बदलाव क्या है और विपक्ष व पूर्व सूचना आयुक्तों या सिविल सोसायटी की क्या आपत्ति है। 2005 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने यह कानून बनाया तो केंद्रीय सूचना आयुक्त को मुख्य चुनाव आयुक्त का दर्जा दिया और सूचना आयुक्तों को चुनाव आयुक्तों के बराबर का दर्जा मिला। इस तरह वैधानिक संस्था होते हुए सूचना आयोग को संवैधानिक दर्जा मिला। इस तरह सरकार ने इसकी स्वायत्तता सुनिश्चित की थी।
अब नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्रीय सूचना आयुक्त और दूसरे सूचना आयुक्तों का दर्जा घटाने जा रही है। उनकी नियुक्ति और सेवा शर्तों में बदलाव किया जा रहा है। नए संशोधन कानून के जरिए यह किया जा रहा है कि केंद्र सरकार अपने दूसरे किसी भी पदाधिकारी की तरह सूचना आयुक्त का नियुक्ति करेगी, उनका वेतन और कार्यकाल तय करेगी और जब चाहे तब हटा भी पाएगी। अभी उनका कार्यकाल पांच साल का तय है पर नए संशोधन के बाद ऐसा नहीं रह पाएगा। सो, जब सूचना आयुक्तों की नियुक्ति सरकार तय करेगी, उनकी सेवा, शर्तें और कार्यकाल सरकार की कृपा पर निर्भर होंगी फिर कैसे उस संस्था से यह उम्मीद की जाएगी कि वह सरकार के कामकाज में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए काम करेगी और आम लोगों के पूछे सवालों का ईमानदारी से जवाब देगी?
सरकार का कहना है कि सूचना आयोग की स्वायत्तता सुनिश्चित करने वाले प्रावधानों में वह कोई बदलाव नहीं करने जा रही है। पर सवाल है कि स्वायत्तता तो इन्हीं बातों से तय होती है कि किसी भी संस्था में नियुक्ति कैसे होती है और उनकी सेवा शर्तें कैसी हैं। इस बिल पर बहस के दौरान सरकार का यह तर्क था कि मुख्य सूचना आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के जज का दर्जा है पर उसके दिए फैसलों को हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। इस विसंगति को दूर करने के लिए बदलाव करने का दावा किया जा रहा है।
असलियत में सरकार के इस तर्क का कोई आधार नहीं है। इसी सरकार में ऐसा हुआ कि राष्ट्रपति ने उत्तराखंड में सरकार बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया और हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति के फैसले को रद्द करके सरकार बहाल कर दी। सुप्रीम कोर्ट के जज का दर्जा राष्ट्रपति से तो ऊपर नहीं है। जब हाई कोर्ट में राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती दी जा सकती है तो चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती देना कौन सी बड़ी विसंगति है? दूसरे इस विसंगति की वजह से सूचना आयोग के कामकाज में कोई समस्या आई हो इसकी मिसाल पिछले 15 साल में नहीं रही है। तभी सरकार की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
सूचना आयोग कानून के 15 साल के इतिहास में इसने कैसे भ्रष्ट लोगों को परेशान किया है इसका अंदाजा सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं पर हुए हमलों से लगाया जा सकता है। पिछले 14 साल में करीब एक सौ सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है। दो सौ के करीब जानलेवा हमले हुए हैं। अगर यह कानून प्रभावी नहीं होता तो सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं पर इतने हमले नहीं होते। बिल्कुल गांव और कस्बे के स्तर पर लोगों ने इसे प्रशासन की गड़बड़ियों से लड़ने का हथियार बनाया है। सूचना आयुक्तों के पद खाली रखने, उनको बुनियादी सुविधाएं नहीं मुहैया कराने जैसी कई गड़बड़ियों के बावजूद सूचना आयोग ने शानदार काम किया है। इसे और मजबूत करने की बजाय इसे कमजोर करने वाला बदलाव अच्छा नहीं है। सरकार को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सत्तारूढ़ पार्टी और खुद प्रधानमंत्री की नजर में जो सबसे भ्रष्ट सरकार थी उसने यह मजबूत कानून बनाया था। ईमानदारी का दावा करने वाली सरकार को तो इसे और मजबूत बनाना चाहिए!
तन्मय कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकरा हैं, ये उनके निजी विचार हैं