सुर्खी नहीं बन सका दहेज के खिलाफ केरल के राज्यपाल का अनशन

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केरल के राज्यपाल आरिफ मुहमद खान ने केरल राज्य में दहेज प्रथा के विरूद्ध जागरूकता पैदा करने के लिए केरल के राजभवन में 14 जुलाई को एक दिन का उपवास रखा था। पर यह उपवास मीडिया की सुर्खी नहीं बन सका। केरल के ही अखबारों में छप कर रह गई यह खबर। नेशनल न्यूज नहीं बन सकी,जबकि मसला बड़ा था। देशव्यापी दहेज की कुप्रथा को रोकने के लिए बड़ा कार्य था। यह खबर तो देश भर में कवर होनी चाहिए थी,पर नहीं हुई। दरअसल राज्य में एक आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज की छात्रा ने आत्महत्या हत्या कर ली थी। उसके आत्महत्या करने के बाद यह मामला तूल पकड़ा। छात्रा का आरोप रहा कि उसके पति द्वारा उसके परिवार से मंहगी कार की मांग की गई है। इस मांग से परेशान होकर वह आत्महत्या करने का कदम उठाने के लिए बाध्य है। घटना के बाद राज्यपाल इस छात्रा के परिवारजनों से भी मिले। गांधी स्मारक निधि की श्रद्धांजलि सभा के बाद राज्यपाल आरिफ मुहमद खान ने मीडिया से कहा था कि गैर सरकारी संगठनों और स्वयंसेवकों को दहेज के खिलाफ एक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए।

उन्होंने वायदा किया कि वह एक स्वयंसेवक के रूप में काम करने के लिए तैयार हैं। खान ने कहा था, दहेज एक बुराई है । जहां तक कानूनों का सवाल है, वे बहुत मजबूत हैं। दहेज के खिलाफ एक सामान्य और सामाजिक जागरूकता पैदा करने की जरूरत है। केरल देश का सबसे शिक्षित राज्य है। 2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में शिक्षा की दर 65.35 प्रतिशत है। इसके बावजूद केरल राज्य में शिक्षा की दर 90.92 प्रतिशत है। प्रदेश में इतना बढिय़ा और उच्च शिक्षादर होने के बावजूद केरल में पिछले पांच साल में दहेज हत्या की 66 घटनाएं हुईं। आंकड़ों के अनुसार राज्य में इस दौरान दहेज उत्पीडऩ के 15 हजार से ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए। यह बात हम सिर्फ केरल की कर रहें हैं जबकि दहेज देश की एक बड़ी समस्या है। बेहद कम ही ऐसी शादी होती हैं जिनमें दहेज लिया, दिया न जाता हो । 2015 में संसद में दी गई एक जानकारी के अनुसार प्रत्येक घंटे में देश में एक महिला दहेज के लिए मार दी जाती है।

ये जानकारी 2015 की है। अब तो छह साल बीत गए। यह संख्या काफी बढ़ गई होगी। ऐसे में जरूरत है कि केरल जैसा आंदोलन, देश भर में चलाया जाए। जन जागरण के कार्यक्रम आयोजित हों। केरल के राज्यपाल आरिफ मुहमद खान के अनुसार दहेज के खिलाफ देश भर में जनचेतना जागरूक करने की जरूरत है। जनचेतना जागरूक करने के लिए देश के सामाजिक संगठन और जनप्रतिनिधियों को आगे आना होगा । जगह जगह कार्यशालाएं करानी होंगी, नुक्कड़ नाटक कराने होंगे। 2018 में काठमांडू से लौटते हुए नेपाल में एक होटल पर हमारी बस रूकीं। यहां हमें फ्रेश होना था। भोजन करना था। होटल के स्वामी मेरे जनपद के ही पूर्व सैनिक निकले। बताया कि सेवानिवृति के बाद यहीं बस गए। बातों -बातों में दहेज की कुप्रथा पर बोले । बेटी को पढ़ाया -लिखाया।

जब बेटी लड़के से योग्यता में कम नहीं तो काहे का दहेज उनकी विचारधारा से मैं अत्यंत प्रभावित हुआ। उनकी सोच हमें समाज में पैदा करनी होगी। हालांकि समाज में बढ़ी शिक्षा की लहर से बदलाव आ रहा है। युवा -युवती अब साथ साथ काम करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियां बहुत आगे आ रही हैं। जाति -पांति धर्म के बंधन तोड़कर परिणय सूत्र में बंध रहे हैं। अब तो ऊंच-नीच ,सवर्ण -अछूत की सीमाएं भी टूट रहीं हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ बाकी है। दहेज के कलंक को समाज के माथे पर से हटाना एक कठिन चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसकी जड़ें बहुत गहरी जम कर रह गयीं हैं । उस जड़ को समूल उखाडऩे के लिए अभी बहुत कार्य करने की जरूरत है।

अशोक मधुप
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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