सीए पर कांग्रेस की दुविधा

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नागरिकता संशोधन कानून को लेकर चल रहे देशव्यापी विरोधी को नेतृत्व प्रदान करने चली कांग्रेस इसकी संवैधानिक स्थिति को लेकर दुविधा में है। बीते शनिवार को केरला लिट फेस्ट में पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं जाने-माने वकील कपिल सिब्बल ने भी माना कि संसद से पारित कानून के अनुपालन की जिमेदारी सभी राज्यों की होती है। उसे ना मानना गंभीर संवैधानिक संकट पैदा कर सकता है। हालांकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर है। उसे ही सीएए की संवैधानिकता को जांचना है तब तक के लिए केन्द्र से अलग राय रखने वाली राज्य सरकारें विधानसभा से विरोध में प्रस्ताव पारित करके केन्द्र को अपनी मंशा बता रही हैं। अब इस बारे में तय तो केन्द्र को करना है। सवाल यही उठता है कि जब पता है कि नागरिकता संबंधी कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार केन्द्र के पास है, तब विरोध के नाम पर विधानसभा के इस्तेमाल का क्या औचित्य? यह तो सीधे तौर पर संसदीय ढांचे को एक तरह से कमजोर करने की कोशिश है।

पता है कि संसद से पारित कानून को ना कहने का अधिकार राज्यों के पास नहीं है, फिर भी विरोध का स्वांग, देश के संसदीय इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हो रहा है। इसका असर इतना विपरीत हुआ कि देश के भीतर एक बड़े तबके के भीतर अविश्वास और भय का वातावरण पैदा हो गया है। कई हिस्सों में धरना-प्रदर्शन चल रहे हैं और उनकी बेमियादी सूरत लेने के चलते हालात इस कदर बिगड़ गये हैं कि आम लोगों का जनजीवन भी प्रभावित होने लगा है। खासतौर पर शाहीन बाग का धरना सुर्खियों में है। प्रदर्शनकारियों ने पूरी सड़क घेर रखी है और उधर से गुजरने वाला ट्रैफिक बाधित हो रहा है। प्रभावित लोगों का आधे घंटे का सफर चार-पांच घंटे में पूरा हो रहा है। इस बाबत एक रेजिडेन्ट एसोसिएशन की तरफ से कोर्ट में गुहार भी लगायी गयी तो वहां से सीधे निर्देश पुलिस को दिया गया कि वो मामले को देखे और निपटाये। पर प्रदर्शनकारी हैं कि हटने का नाम नहीं ले रहे। पुलिस के सामने वर्तमान स्थिति में बल प्रयोग का विकल्प इसलिए भी नहीं है कि उस धरने में सर्वाधिक महिलाएं और बच्चे शामिल हैं।

वैसे भी बल प्रयोग के मामले में पुलिस का इतिहास सर्वविदित है। पर जिस तरह देश का एक बड़ा तबका डराया जा रहा है, उसका नतीजा यह है कि लोग यह भी सुनने-समझने को तैयार नहीं कि पारित कानून का कांटेंट क्या है? जाहिर है यह स्थिति सियासी दलों के गैर जिमेदाराना रवैये से पैदा हुई है। मौजूदा सकरार की नीतियों को लेकर उसकी तीखी आलोचना करना विपक्ष का काम है लेकिन सिर्फ अपने सियासी लाभ के लिए भ्रम का वातावरण तैयार करना और भ्रम फैलाना किसी भी दृष्टि से वाजिब करार नहीं दिया जा सकता। जानते-समझते हुए भी विरोध की राजनीति कितनी खतरनाक होती है, उसे इन दिनों खास तौर पर महसूस किया जा सकता है। विरोध के जरिये छोटे-छोटे बच्चों में जिस कदर नफरत के बीजे बोये जा रहे हैं, उसका कालांतर में क्या असर होगा, कभी सियासतदानों ने सोचा, किसी ने ठीक कहा है कि लहों की खता, सदियों भुगतनी पड़ती है।

कांग्रेस जैसी सबसे पुरानी पार्टी जब भ्रम और अफवाह की प्रवक्ता बन जाती है तब स्वाभाविक तौर पर अविश्वास का भाव पैदा होता है। मौजूदा परिदृश्य में यही हालात पैदा हुए हैं। इतनी बड़ी और पुरानी पार्टी कोई बात रख रही है तो सच ही होगा। कथन की दरियाफ्त कौन करता है, भला सब उसे ही सच मान प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं। पर इस पूरे प्रसंग में सत्ता पक्ष से जुड़े कुछ नेता भी जिमेदार हैं जिनके बयानों ने भी भ्रम और अफवाह को मजबूती प्रदान की है। इसके अलावा एक और बात है, वो है ध्रुवीकरण। इसकी खातिर हो रही सियासत ने देश का पहले भी बहुत नुकसान किया है और 21वीं सदी में उस गलती को ना दोहराने का संकल्प लिया जाना चाहिए। एक-दूसरे के दिल में नफरत रोप कर एक तरक्कीपसंद और खुशमिजाज मुल्क नहीं बनाया जा सकता।

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