सिलेक्टविज्म का चश्मा उतारने का समय

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उन्नाव में रेप पीड़ित की मौत हो गई हैदराबाद में महिला डॉक्टर की जली हुई लाश मिली थी। मुजफ्फरपुर में युवती को जलाया गया, दरभंगा में 5 साल की बच्ची से रेप हुआ, झारखंड में लॉ स्टूडेंट के साथ गनपॉइंट पर रेप हु आज मालदा में भी हैदराबाद जैसा हु. आज अभी पूरा देश गुस्से में उबल रहा है, सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखी जा रही हैं। हर दिन ये ट्रेंड हो रहा है.. कैंडल मार्च, अनशन- प्रदर्शन सब हो रहा है लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि कुछ समय बाद ये सब भुला दिया जाएगा और फिर किसी अगली घटना का इंतजार किया जाएगा। महिला सुरक्षा को लेकर हम इतने सिलेक्टिव हैं कि हमारे अंदर का ‘ऐक्टिविस्ट’ अब सीजनल हो गया है। लगातार लाइमलाइट में आ रहीं रेप घटनाओं पर आक्रोशित होने से पहले जरा सोचिए क्या आपको वाकई गुस्सा दिखाने का हक है? रेप की घटनाएं लगभग रोज होती हैं, महिलाओं के खिलाफ अपराध भी होता है लेकिन क्या यह सच नहीं कि कई बार हम सिर्फ सुनकर आगे बढ़ जाते हैं या सिर्फ हेडिंग पढक़र अखबार का पन्ना पलट देते हैं और मान लेते हैं कि अब तो ये रोज-रोज की बात हो गई। गंभीर अपराध छोड़ दीजिए, अपने आस-पास जब आप किसी महिला को असहज देखते हैं तो कितनी बार आवाज उठाते हैं, और कितनी बार नजरें घुमा लेते हैं। नहीं तो कभी खुद ही घूरना शुरू कर देते हैं। यह हमारा सिलेक्टविज्म ही है कि पब्लिक फोरम और सोशल मीडिया पर महिला सुरक्षा के टॉपिक पर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं लेकि न प्रैह्विटक ली अप्लाई करते वक्त

सब हवा-हवाई साबित हो जाता है। लड़कियों को भी पता है कि हम हर जगह छोटे क पड़े पहनकर नहीं घूम सकते, रात में अकेले आने के ऑप्शन पर भी बार-बार सोचने पर मजबूर किया जाएगा। उन्हें पता है कि सोसाइटी अभी उनके लिए उतनी रिस्पॉन्सिबल नहीं है कि कोई अंजान मुश्किल वक्त में मदद करने का ऑप्शन दे तो वे राहत की सांस लेते हुए उसके साथ चले जाएं। कुछ गलत हुआ तो एक सवाल आरोपी से होगा लेकिन चार सवाल लडक़ी से होंगे, उसके कै रेक्टर पर होंगे। यह हमारा सिलेक्टविज्म ही है कि चार लोगों के बीच सब क हते हैं कि महिलाओं को कमॉडिटी मत मानो लेकिन पोर्न देखना पर्सनल चॉइस बन जाती है। बैन करने की बात पर उसकी वकालत करने निकल पड़ते हैं। वेब सीरीज की गाली- गलौज और वाइल्ड सीन हमें नॉर्मल लगते हैं। यह हमारा सिलेक्टविज्म ही है कि हम दंगों में रेप का शिकार हुई महिलाओं के न्याय के लिए कभी सडक़ों पर नहीं उतरते, उनके दुख पर कभी छाती नहीं पीटते। ये हमारा सिलेक्टविज्म ही है कि हम रेप जैसे अपराध में भी आरोपी और पीडि़ता का पहले धर्म ढूंढते हैं, जाति ढूंढते हैं और फिर अपना ओपिनियन बनाते हैं। सिलेक्टविज्म ही है कि एनकाउंटर में आरोपियों के मारे जाने पर हम पुलिस की पीठ थपथपाते हैं और कठुआ में पुलिस को ही आरोपी मान लेते हैं।

बलात्कार के आरोपियों के समर्थन में रैली निकालते हैं, हंगामा मचाते हैं। सिलेक्टविज्म ही है कि महिलाओं के सम्मान को तार-तार करते हुए महिलासूचक गाली मुंह से निकालते हैं। अफसोस की बात यह है कि इस सिलेक्टविज्म में महिलाएं खुद भी भागीदार हैं, खुद को ‘कूल’ समझते हुए पब्लिक या पर्सनल स्पेस में आम तौर पर इस तरह की गाली का इस्तेमाल बिना कुछ सोचे समझे करती हैं और फिर धीरे से खुद से ‘फेमिनिस्ट’ भी बता देती हैं। सिलेक्टविज्म की बदौलत ही, महिलाओं के खिलाफ हो रही वारदात पर सोशल मीडिया पर शब्दों को सजाते हुए लिखा जाता है लेकिन प्रैक्टिकली जब खुद का लडक़ा लडक़ी छेडऩे का आरोपी बनाया जाए तो उसको सही साबित करने के लिए स्कूल के टीचर तक को लात-घूंसों से पीट देते हैं।सिलेक्टविज्म ही है कि सेक्स वर्कर्स और बार बाला की आजादी हमें आजादी नहीं लगती, उनका आत्म सम्मान किसी को गवारा नहीं होता, उन्हें कभी ‘रेस्पेक्टफुल सोसायटी’ का हिस्सा नहीं माना जाता। उनके साथ अगर कुछ गलत हो तो हमें गलत नहीं लगता। जिस दिन इन सारे सिलेक्टविज्म का चश्मा उतर जाएगा और ईमानदारी से समाज को बेहतर बनाने की कोशिश होगी तो महिलाओं के खिलाफ अपराध के लिए अभी जो कानून हैं उसी से इंसाफ हो जाएगा। हां, मैं न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाए जाने की पक्षधर जरूर हूं।

शेफाली श्रीवास्तव
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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