साल्ट का फाल्ट : दवाइयों में खेल-सेंपल हो रहे फेल

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नकली दवाओं का जाल लोगों की सेहत के लिए संकट बनता जा रहा है। मलेरिया, निमोनिया व अन्य बीमारियों के इलाज के नाम पर बिक रही नकली व निर्धारित मानक से निम्न स्तर की दवाओं से हर साल सैकड़ों लोग जान गंवा रहे हैं। जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए बिक रही अधिकतर दवाइयों के सैंपल फेल हो रहे हैं। दूसरा पहलू ये भी है कि कंपनियां एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा के चलते सस्ती दवाइयां मार्केट में उतार रही हैं। जागरूक न होने के कारण लोग खरीद रहे हैं। यही कारण है कि दवाइयां ज्यादा असर नहीं करती और नाम खराब अस्पताल या डाक्टर के होते हैं। मेडिकल क्षेत्र में मेरठ का अपना अलग स्थान है। सैकड़ों से अधिक अस्पताल और इतनी ही संख्या में दवा कंपिनयों की फैक्ट्रियां हैं। अस्पतालों में मरीजों की भरमार है। महंगा इलाज भी जिंदगी के साज को नहीं बजा पा रहा है।

दवा कंपनियां भी मरीज का फायदा कम और अपना ज्यादा देख रही है। हाल ही में एक रिसर्च के मुताबिक एंटीबोयोटिक लोगों पर असर कम कर रही है। इस शोध ने चिकित्सकों को दुविधा में डाल दिया था। चिकित्सों ने सेमिनार किए और लोगों को बताया कि एंटीबायोटिक का असर क्यों कम हो रहा है? बताया कि लोग एंटीबायोटिक का कोर्स पूरा नहीं करते और उसको अधूरा छोड़ देते हैं। हालांकि, इस पर चिकित्सकों में मतभेद देखा गया। मेरठ ड्रग्स एंड केमिस्ट एसोसिएशन के महामंत्री रजनीश कौशल ने बताया कि एंटीबायोटिक इसलिए असर नहीं कर रही कि दवा कंपनियां लोगों के साथ धोखा कर रही है। कंपनियां अपना फायदा ज्यादा देख रही है। निर्धारित मानक से निम्न स्तर की दवाइयां बाजार में हैं। जो मरीजों पर असर नहीं करती। डाक्टर पांच दिन की दवा मरीज को देता है, लेकिन दवा में निर्धारित मानक से कम साल्ट होने के कारण दवा अपना असर नहीं करती, यही कारण है कि अब डाक्टर भी 10 दिन की दवा मरीज की दे रहे है। इससे मरीज की जेब पर अधिक भार तो पड़ ही रहा है, वह दवा भी पांच दिन के स्थान पर दस दिन ले रहा है।

हब बन रहा मेरठ – विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भातर में सद में से एक नकली या घटिया दवा की सप्लाई होती है। सारे संसार में नकली दवाइयों का 35 फीसदी हिस्सा भारत से ही जाता है और इसका करीब 4000 करोड़ रुपये के नकली दवा बाजार पर कब्जा है। भारत में बिकने वाली लगभग 20 फीसदी दवाइंया नकली होती हैं। सिर दर्द और सर्दी जुकाम की ज्यादातर दवाएं या तो नकली होती हैं या फिर घटिया किस्म की होती है। नकली दवाइयों का जाल भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला हुआ है। मेरठ इससे अछूता है। दिल्ली नजदीक होने के कारण यहां नकली दवाइयों की सप्लाई ज्यादा है। गांव-देहातों का जोर मेरठ पर है लिहाजा मरीज यहां ज्यादा आते हैं।

प्रयोगशालाओं की कमी : – रजनीश कौशल ने बताया कि दवाओं की गुणवत्ता जांचने के लिए प्रयोगशालाओं की भारी कमी है। इसके चलते यह पता करना अत्यंत कठिन है कि बाजार में चल रही कौन सी दवा असली है और कौन सी नकली। सरकार के पास न तो पर्याप्त संख्या में ड्रग इंस्पेक्टर हैं और न ही नमूनों की जांच के लिए सक्षम प्रयोगशलाएं हैं। नकली दवा माफिया इस कदर हावी है कि उसे केन्द्रीय औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम के गैर जमानती और आजीवन कारावास जैसे सख्त प्रावधानों की भी परवाह नहीं है। शहर व जिले के देहाती क्षेत्रों में हजारों मेडिकल स्टोर हैं जहां से नकली दवाओं को मरीजों को दिया जा रहा है। मावा जा रहा है कि इससे हर साल सैंकड़ों करोड़ की आमदनी इस गंदे धंधे से जुड़े लोग कर रहे हैं। सरकारी स्तर पर रोकथाम ज्यादा है नहीं लिहाजा खामियाजा मरीजों को भी भुगतान पड़ता है।

बड़ी-बड़ी कंपनियां भी शामिल :- नकली दवाएं या हम कहें कि कम असर करने वाली दवाईयां केवल छोटी-मोटी कंपनियां नहीं बल्कि बड़ी-बड़ी कंपनियां बना रही हैं। अगर मार्केट में जाएं तो देखेंगे कि मिलते-जुलते नाम की दवाईयां अलग-अलग दामों में एक ही सॉल्ट की बिक रही हैं। केमिस्ट या इस फील्ड के जानकारों का कहना है कि महंगी दवाएं जो हैं उनके सॉल्ट में कोई आउट डेट या कम ज्यादा मात्रा नहीं होती। लेकिन अगर कोई सॉल्ट की एक्सपायरी अब करीब आ रही है या वह मार्किट में खप नहीं रही है तो उसी प्रकार के कैमिकल और मिलते-जुलते नाम की दवा मार्किट में उतारी जाती है, जो सस्ती होती है। इस तरह बचा हुआ माल खप जाता है। उसी कंपनी का या फिर किसी और कंपनी कं साथ सामंजस्य बनाकर। लेकिन क्या यह हमारे स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं है और हमारी एजेंसियां इस ओर क्या कर रही हैं? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। आज सरकारी तंत्र भी दवाओं के वितरण में मदद क रहा है।

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