आज तोताराम नहीं आया। हमने सोचा अब अंतिम चरण के मतदान के बाद नेताओं की तरह हमारे पास भी कुछ करना तो दूर, सोचना भी नहीं रह गया है। ऐसे में कोई बात नहीं, तोताराम नहीं आया तो क्या, हमीं उसकी तरफ निकल चलते हैं। तोताराम के घर जाकर पता किया जो उसका पोता बंटी बोला- बड़े दादाजी आप थोड़ी देर बरामदे में ही बैठें। दादाजी कल शाम से ही अपना कमरा अन्दर से बंद करके बैठे है। हमसे कह रखा है कि मुझे जब बाहर आना होगा, अपने आप आ जाऊंगा। कोई मुझे डिस्टर्ब न करे। मैं साधना कर रहा हूं। हमने बंटी से कहा- तू चिंता न कर। हम ऐसे साधकों को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।
हमने कहा – तोताराम, बाहर आ जा। तेरी आत्मा को किस शान्ति की जरूरत आ पड़ी? तूने कौन -सा कुकर्म किया है, जो तू अशांत है? पे कमीशन के एरियर के अलावा तुझे कौन-सा देश के विभिन्न भागों में रैलियां की है। कौन-सा मंचीय कवियों की तरह रात-रात जागकर चुटकुले सुनाए हैं, जो विश्राम और शान्ति की जरूरत आ पड़ी। और फिर तेरी पार्टी जीत ही गई है। अन्दर से ही तोताराम ने उत्तर दिया मैं किसी पार्टी की जीत-हार जैसे छोटे मामलों को लेकर चिंतित नहीं हूं। लेकिन चुनाव भी एक प्रकार का युद्ध ही है। इसमें न चाहते हुए भी नेताओं ही नहीं, उनके समर्थकों और सामान्य जनता से गर्हित कर्म हो ही जाते हैं इसलिए जैसे किसी विवाह या मौत के बाद घर के घड़े बदले जाते हैं वैसे ही आत्मा की भी कुछ शुद्धि आवश्यक होती है।
इसलिए मैं तो अपनी आत्मशुद्धि के लिए साधना कर रहा हूं। हमने कहा-तोताराम, साधन पुल्लिंग है और साधना स्त्रीलिंग। जिसके पास साधन हैं, उसी को साधना शोभा देती है। वही साधना के लिए साधनों का खर्चा उठा सकता है। साधना भी ऐसे ही साधन सम्पन्नों का वरण करती है। महावीर बुद्ध राजकुमार थे तो साधना करना अफोर्ड कर सके। नानक के पास भी बाप के दिए रुपए थे, जिसके बल पर वे भूले साधुओं को भोजन करवाने जैसा ‘खरा सौदा’ कर सके। मोदी जी भी जब चाय बेचा करते थे तब क्या कभी साधना के लिए गए? अब भगवान की दया से प्रधानमंत्री बन गए तो साधना के लिए सर्व साधन-संपन्न गुफा में जा सकना अफोर्ड कर सके, जिसमें वाई-फाई, फ्रिज, हीटर और घंटी बजने पर चाय, नाश्ते आदि की सब व्यवस्थाएं हैं।
हमारे लिए तो अभावों में भी संतोष और शान्तिपूर्वक जीवनयापन करना और कोई कुकर्म न करना ही सबसे बड़ी साधना है। भगवान की दया से अपनी तो साधन निभ गई। मुझे कौन-सा वोट बैंक बनाना है जो नेताओं की तरह साधना को भी राजनीतिक रंग दे दें। तोताराम कमरे से बाहर निकलते हुए बोला मास्टर, दो नाम लेने देता तो क्या बिगड़ जता? नेताओं के पास तो दोनों लोक सुधारने के अपने साधन है लेकिन हमारे पास तो सच्चे मन से दो नाम लेने के अलावा और क्या है?
रमेश जोशी
लेखक जाने-माने व्यंगकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं