साख का सवाल

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लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका का महत्व इसीलिए बढ़ जाता है कि जब व्यवस्था के दूसरे अंगों को लेकर कोई सवाल उठता है तब व्यक्ति न्याय के लिए इसी आखिरी दर पर उह्यमीद लिए जाता है। इस दृष्टि से इन दिनों सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी द्वारा मुख्य न्यायाधीश पर लगे अमर्यादित आरोप के बाद न्यायिक जगत में जो हालात पैदा हुए हैं, वे चिंता बढ़ाने वाले हैं। खुद शीर्ष न्यायाधीश का कहना है कि ए यह अविश्वसनीय है और ऐसे आरोपों को नकारने के लिए जितना गिरना पड़ेगा, वह नहीं गिर सकते। इस उद्वार में उनकी पीड़ा छिपी है। उनके मुताबिक कोई बड़ी ताकत शीर्ष न्यायाधीश के दफ्तर को निष्क्रिय करना चाहती है। उनकी मानें तो इस हफ्ते कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई होनी है, जिसमें राहुल गांधी के खिलाफ अवमानना की शिकायत और नरेन्द्र मोदी की जीवनी पर बनी फिल्म की रिलीज प्रमुख हैं। इधर के वर्षों में यह दूसरी बार है कि सुप्रीम कोर्ट को लेकर एक आपात स्थिति पैदा हुई है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सक ता है कि इसी शनिवार को छुट्टी वाले दिन आनन-फानन में सुनवाई की गई।

पिछली बार जब दीपक मिश्रा शीर्ष न्यायाधीश थे, तब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायमूर्तियों ने प्रेस कांफ्रेंस करके न्यायपालिका के भीतर के असंतोष को सार्वजनिक कि या था। इसके बाद राजनीतिक दलों की तरफ से बयानबाजी भी हुई थी। उस प्रेस कांफ्रेंस का एक हिस्सा मौजूदा प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई थे। अब सामने आये नये आरोप ने जमीन हिला दिया है। वैसे वह महिला पहले से धोखाधड़ी के मामलों में जमानता पर है। आपराधिक मामलों का पृष्ठभूमि के आधार पर किसी निर्णय तक पहुंचना जल्दबाजी होगी। जजों का पैनल बनाकर मामले की तह तक जाया जा सक ता है। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि इस तरह की कोई साजिश न्याय के सर्वोच्च मंदिर में चल रही है तो बाकी का अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने वाली किसी भी तरह की साजिश को बेनकाब किया जाना सबके हित में है। प्रधान न्यायमूर्ति का यह सवाल वाजिब है कि न्याय के प्रोफेशन में लोग प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए आते हैं, यदि उसे ही धूमिल करने की कोशिश होती दिखने लगे तो फिर एक जज के पास होता ही क्या है।

कुछ समाचार पोर्टलों में महिला के आरोपों को केन्द्र में लेकर खूब खबरें चली थीं। ऐसे समय में जब ‘मीटू’ अभियान का दायरा बढ़ता जा रहा है। तब इस तरह के आरोपों को खारिज किए जाने से पहले उसकी पूरी पड़ताल की जानी चाहिए। इससे दोषियों को सामने लाकर दण्डित किया जा सकता है। जैसा कि प्रधान न्यायाधीश का कहना है कि कुछ ताकतें नहीं चाहती कि वे महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई कर सकें तो यह बड़ा गंभीर सवाल है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। यदि ऐसा कोई रैकेट न्याय के मंदिर में फैसलों को रोकने या पलटने की दिशा में कुछ बड़ों के इशारे पर काम करता है तो उसका भी पर्दाफाश किया जाना चाहिए। इस तरह के आरोपों और आशंकओं को एक झटके में खारिज नहीं कि या जा सक ता। उम्मीद है, न्याय मंदिर के भीतर उठे आशंकओं के तूफान को हमारे सक्षम न्यायमूर्ति शांत करने में समर्थ साबित होंगे। पहले भी चुनौतियां रही है। उनसे भी स्वायत व्यवस्था के लोगों ने पार पाया है, इस बार जरूर मामला निजी आचरण से जुड़ा हुआ है। उम्मीद है, इस मसले पर भी सुप्रीम कोर्ट के भीतर ऐसी व्यवस्था बनेगी जिससे मौजूदा संकट का समाधान तो होगा ही, साथ ही भविष्य के लिए भी ऐसी चुनौतियों से निपटने का मार्ग प्रशस्त होगा।

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