यह कहना थोड़ा जोखिम भरा है पर हकीकत है कि आज भारत एक संघर्ष में उलझा देश है। इस देश की सरकार ने अपने ही नागरिकों खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। यह युद्ध बहुस्तरीय है और इसका विस्तार भी पूरे देश में है। ऐसा नहीं है कि यह पहला मौका है, जब नागरिक और राज्य के बीच संघर्ष हो रहा है।
राज्य और नागरिक के बीच संघर्ष स्थायी रहा है। पर पहले संघर्ष के मुद्दे दूसरे थे और उसमें शामिल समूह पहचाने हुए थे। कहीं उनको नक्सलवादी कहा जाता था तो कहीं चरमपंथी।
पूर्वोत्तर से लेकर मध्य भारत के घने जंगलों से होते हुए सुदूर दक्षिण तक इन संघर्षों का विस्तार था। इसमें जम्मू कश्मीर को शामिल करना ठीक नहीं होगा क्योंकि उस संघर्ष की प्रकृति थोड़ी अलग है और उसमें बाहरी दखल के बहुत स्पष्ट सबूत हैं। इसके बावजूद घाटी में पिछले चार महीने से जो हो रहा है वह एक देश का अपने ही नागरिकों के खिलाफ छेड़े गए युद्ध से कम नहीं है।
असल में ऐसा लग रहा है कि अब देश में कई नए युद्ध क्षेत्र बन गए हैं। हो सकता है कि ये युद्ध क्षेत्र अस्थायी हों पर फिलहाल देश का एक बड़ा नागरिक समूह युद्धरत है। पूर्वोत्तर के नागरिक अपनी अस्मिता बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। केंद्र सरकार नागरिकता कानून में बदलाव कर रही है और तीन पड़ोसी देशों से आने वाले गैर मुस्लिमों को नागरिकता देकर भारत में बसाने का कानून बना रही है।
पूर्वोत्तर के राज्य इस चिंता में हैं कि सरकार के इस कदम से उनकी पारंपरिक पहचान, संस्कृति, भाषा आदि सब पर असर होगा। तभी वे आंदोलित हैं और सरकार आंदोलन को रोकने के लिए हर तरह के उपाय कर रही है। पूर्वोत्तर के सात राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, सिक्किम और त्रिपुरा को सेवेन सिस्टर्स कहा जाता है। इसमें असम को जोड़ दें तो इनकी संख्या आठ होती है।
ये आठों राज्य एक खास किस्म की बांडिंग से आपस में बंधे हुए हैं। इसके बावजूद आठों अलग भाषा और संस्कृति वाले राज्य हैं। यहां तक कि राज्यों के अंदर भी ऐसे जातीय समुदाय हैं, जो दूसरों से बिल्कुल अलग जीवन शैली वाले हैं। इनकी संस्कृति आपस में कहीं नहीं मिलती हैं और यहीं इनके बीच टकराव का कारण भी है। ये अपनी अस्मिता को लेकर जितने सजग हैं उतने ही सजग अपनी भौगोलिक सीमाओं को लेकर भी हैं। तभी कई राज्यों के बीच सीमा और आबादी को लेकर टकराव है।
ऐतिहासिक रूप से पूर्वोत्तर के राज्य सबसे ज्यादा बाहरी लोगों की शरणस्थली रहे हैं। बांग्लादेश संकट के समय बड़ी संख्या में लोग सीमा पार से आकर इन राज्यों में बसे हैं। असम में उल्फा का आंदोलन इसके ही खिलाफ खड़ा हुआ था। नागरिकता कानून ने उस घाव को फिर हरा कर दिया है। पूर्वोत्तर के राज्य फिर अपनी अस्मिता को बचाने के लिए खड़े हो गए हैं, जिसका नतीजा समूचे पूर्वोत्तर में चल रहा आंदोलन है। सरकार ने इन राज्यों को भरोसा दिलाने के लिए इनर लाइन परमिट यानी आईएलपी का प्रावधान किया है। इसका मतलब है कि इनर लाइन परमिट वाले इलाकों में जाने के लिए पहले से मंजूरी लेनी होगी। पर इसके बावजूद पूर्वोत्तर के लोग सरकार के तर्क से मुतमईन नहीं हैं।
नागरिकता कानून में संशोधन और उसके बाद राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की तैयारी ने देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह को ऐसे भंवर में उलझा दिया है, जिसका अंत नतीजा संघर्ष है। लाखों नहीं करोड़ों भारतीय नागरिक अपनी पहचान साबित करने के संघर्ष में उलझने वाले हैं। अभी कानून लागू नहीं हुआ है और एनआरसी शुरू नहीं हुई है पर वे पूछ रहे हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए? किस किस्म के दस्तावेज उनके पास होने चाहिए? और अगर वे अपनी नागरिकता प्रमाणित नहीं कर पाते हैं तो सरकार उनके साथ क्या करेगी? लाखों-करोड़ों लोग स्टेटलेस हो जाने की चिंता में हैं।
एक तरफ देश के अल्पसंख्यकों में स्टेटलेस होने की चिंता है तो दूसरी ओर दलित अस्मिता के संघर्ष की आग अंदर अंदर सुलग रही है। महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा उसकी एक मिसाल थी। अभी वहां शांति है तो यह नहीं मानना चाहिए कि वहां सब कुछ ठीक है। दलित विमर्श को राजनीति की मुख्यधारा बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी जैसी शक्तियां ढलान पर हैं और भीमा कोरेगांव से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद तक नई शक्तियां इस संघर्ष की कमान संभालने वाली हैं।
सोशल मीडिया में दलित अस्मिता और अधिकार को लेकर चल रही बहस इस बात का इशारा है कि समाज में एक नए संघर्ष की खदबदाहट है और उसके लिए नया सामाजिक समीकरण भी बन सकता है। देश के अलग अलग हिस्सों में छात्र अलग आंदोलित हैं। उनका भी सरकार के साथ संघर्ष चल रहा है। छात्रावास की बढ़ी हुई फीस को लेकर दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र महीनों से आंदोलन कर रहे हैं। वे धरने पर बैठे हैं और जब जब उनके प्रदर्शन या मार्च की घोषणा होती है दिल्ली की सड़कें बंद कर दी जा रही हैं।
सरकार इन छात्रों से कितनी डरी है वह दिल्ली की सड़कों पर दिख रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के तदर्थ शिक्षकों का संघर्ष अपनी जगह है तो उत्तराखंड के आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय के छात्रों का अलग प्रदर्शन है। वाराणसी में मुस्लिम शिक्षक के संस्कृत पढ़ाने के खिलाफ छात्रों का आंदोलन भी इस युद्धरत देश की एक हकीकत है।
देश के किसानों का संघर्ष थोड़ा थमा हुआ दिख रहा है पर वह अस्थायी युद्धविराम है। किसान सम्मान निधि या कर्ज माफी के जरिए केंद्र और राज्यों की सरकारों ने थोड़ी मोहलत हासिल की है। पर असलियत यह है कि देश का किसान ऐसे दुष्चक्र में फंस गया है कि अपनी ही सरकार से संघर्ष उसकी नियति बन गई है। करोड़ों नौजवान रोजगार के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उनका संघर्ष भी अंततः राज्य के साथ ही है। सरकार की नीतियों ने आर्थिकी का ऐसा भट्ठा बैठाया है कि रोजी-रोटी लोगों की नंबर एक चिंता बनी है।
जेल में बंद विचाराधीन कैदी न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो घर से लेकर बाहर तक महिलाओं का अपनी सुरक्षा व सम्मान का संघर्ष अलग है। इस तरह के संघर्ष पहले भी होते थे पर तब सरकारों का सरोकार इन संघर्षों के प्रति दिखता था। अब सरकार का सरोकार सिर्फ सत्ता के लिए दिख रहा है। आम आदमी के संघर्षों के प्रति सत्ता की उदासीनता ने इसकी तीव्रता को कई गुना बढ़ा दिया है।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं