सरकार की चुप्पी चिंताजनक

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संसद में लाए गए कृषि से संबंधित तीन बिलों पर दो तरह के सवाल है। मौलिक सवाल है कि इनसे किसका फायदा और नुकसान होगा? साथ ही प्रक्रियात्मक मुद्दे भी अहम हैं। प्रक्रिया को लेकर एक आपात्ति है कि राज्य सभा में जोर-जबरदस्ती, बिना वोटिंग, शोर के बीच इन्हें पारित कर दिया गया। दूसरी आपात्ति राज्यों को है: कृषि और बाजार संविधान की स्टेट सूची में हैं। इस पर केंद्र द्वारा अध्यादेश और कानून लाने को राज्यों के संवैधानिक हकों पर प्रहार माना जा रहा है। संवैधानिक हक राजस्व के मुद्दे से जुड़ा है। जीएसटी के बाद राज्यों के पास राजस्व के खास स्रोत बचे नहीं है। वैट राज्यों के लिए अहम स्रोत था जो जीएसटी में शामिल होकर केंद्र के हाथों चला गया। तब से राज्यों के पास कृषि मंडी कर की अहमियत बढ़ गई है। अब इसके खत्म हो जाने का खतरा है। यदि प्रक्रियात्मक पहलू को नजरअंदाज कर दें तो क्या इन बिलों से कृषि और उपभोक्ता का फायदा है? आमतौर पर चर्चा में इन दो पक्षों को आमने-सामने रखने से पूरी तस्वीर सामने नहीं आती। और भी खिलाड़ी हैं: मंडी में किसान से खरीद करने वाले एजेंट, और निजी व्यापारी।

निजी व्यापारी भी दो तरह के हैं। छोटे और बड़े कॉर्पोरेट। मुद्दा निजी बनाम सरकारी मंडी में व्यापार का नहीं है। बहुत लोगों का मानना है कि आज उपज की खरीद-बिक्री सरकारी मंडी द्वारा ही की जाती है। लेकिन 2012 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार यह तथ्य ज्यादातर फसलों के लिए मिथक है। उदाहरण के लिए- मक्का, धान/चावल, बाजरा, ज्वार जैसी फसलों के लिए आधा या उससे भी ज्यादा, निजी व्यापारियों द्वारा खरीदा जाता था। यानी आज भी, बड़ी मात्रा में निजी व्यापार है, इसके बावजूद देश में किसानी की समस्या बरकरार है। यानी मुद्दा निजी बनाम सरकारी मंडी में व्यापार का नहीं है। यदि निजी मंडी पर सरकार कर नहीं लगा सकती तो सरकारी मंडी और निजी मंडी के बीच बराबरी का मुकाबला नहीं रहेगा। बेशक, देश में मंडियों की कमी है। सरकार का कहना है कि सरकारी मंडियों में आढ़तिया व अन्य लोग किसान को सही दाम नहीं देते और निजी मंडी लाने से, जो लेवी या कर से मुफ्त होंगे, किसान और उपभोक्ता को सही दाम मिलेंगे। यह हो सकता है और नहीं भी। आज ये आढ़तिया खलनायक के रूप में उभर रहे हैं।

जो किसान मंडी तक फसल बेचने आते हैं, उन्हें मंडी में आढ़ती से निपटना होता है। और कुछ हद तक जायज़ भी है। किसान और आढ़ती के सम्बन्ध में शोषण की गुंजाइश है। आढ़ती किसान को तुरंत भुगतान करते हैं, सामान के भण्डारण की जि़म्मेदारी लेते हैं, ज़रुरत पडऩे पर उधार भी देते हैं। फिर इन सेवाओं की कीमत किसान से वसूलते हैं। हम कैसे मान लें कि जो निजी व्यापारी आएंगे वो आढ़तियों की तरह व्यवहार नहीं करेंगे। किसानों से कम-से-कम दामों में खरीदना और उपभोक्ता से ज्यादा से ज्यादा वसूलना? निजी व्यापारी क्यों समाज सेवा करेंगे जब आढ़तियों ने ऐसा नहीं किया? और यदि निजी व्यापारी बड़ी कंपनी के रूप में छोटे किसान तक पहुंचेगी तो क्या वह छोटे किसान, जो आढ़तिए से अपने हित में मोल-भाव नहीं कर सके, क्या वह बड़ी कंपनी से कर लेंगे?

न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अधिनियमों में सरकार की चुप्पी को लेकर चिंताएं हैं। कुछ का कहना है कि वह रहे न रहे, किसानों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वैसे भी इन्हे कुछ ही फसलों के लिए घोषित किया जाता है, और उनमें से भी कुछ के लिए वास्तव में खरीद होती है। एमएसपी के कम लागू होने से यह निष्कर्ष निकालना कि किसानों का इससे कोई फायदा नहीं….गलत होगा। जहां यह लागू है वहां निजी बाजार में बेचने वाले किसानों का भी फायदा होता है क्योंकि निजी व्यापारी को अब कम से कम एमएसपी देनी पड़ती है। कृषि क्षेत्र में आज स्थिति ठीक नहीं है और मुद्दे गंभीर हैं। कृषि क्षेत्र से करोड़ों लोग जीवनयापन करते हैं। इस पर खुले मन से विचार के बजाय सड़कों पर विरोध के चलते, सरकार अंग्रेज़ी अखबारों को विज्ञापन दे रही है जहां 200-400 शदों में इन पेचीदा मुद्दों को समेटा जा रहा है।

रीतिका खेड़ा
(लेखिका अर्थशास्त्री हैं दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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