समानता और न्याय का विचार ही सर्वोच्च

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यह मानना ही होगा कि भारत का हिन्दू समुदाय पहचान और सत्ता के मामले में इतनी अच्छी स्थिति में कभी नहीं रहा। हिन्दुओं की भारत की आबादी में 80% हिस्सेदारी है। फिर भी हिन्दुओं ने ऐसा राजनीतिक नियंत्रण पहले कभी महसूस नहीं किया था। आज समुदाय को लगता है कि उसकी महत्वाकांक्षाओं को प्रतिनिधित्व और समर्थन मिला है।

नए मंदिरों से लेकर योग व आयुर्वेद तक, सब मुख्यधारा में है। शीर्ष पर भाजपा सरकार का भी इस समुदाय के प्रति झुकाव लगता है। ज्यादातर पारंपरिक मीडिया भी हिन्दू एजेंडा का समर्थन करता है। अंग्रेजी बोलने वाले उदारवादी, जो कभी मीडिया और मतों पर हावी थे, अब गिनती के ही रह गए हैं। राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से, हर तरह से भारत के हिन्दुओं का प्रभुत्व है। ऐसा अतीत में कभी नहीं हुआ था।

यह शानदार लगता है न? क्या यह अच्छा नहीं कि जिस धरती पर कभी बहुसंख्यकों की सही मायनों सत्ता नहीं रही, वहां अंतत: वे सत्ता में हैं? मुगलों व अंग्रेजों ने हमपर सदियों राज किया। स्वतंत्रता के बाद भी मुस्लिमों का झुकाव कांग्रेस के प्रति रहा। इसलिए कई लोग सोचते हैं कि क्या यह बदलाव अच्छा नहीं है? लेकिन कुछ लोग इससे नाराज क्यों हैं कि नियंत्रण अब हिन्दुओं के हाथ में है?

सैद्धांतिक रूप से इस तर्क में कुछ गलत नहीं है। हालांकि व्यावहारिक रूप से जब भी राजनीति, शासन, संस्कृति और सामाजिक नियमों में धर्म की भूमिका ज्यादा प्रभावशाली हो जाती है, कुछ समस्याएं होती हैं। यह किसी एक धर्म, राजनेता या पार्टी के बारे में नहीं है। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण है, जब राजनीति में धर्म को ज्यादा मिलाने पर किसी राष्ट्र का पतन हुआ हो।

क्रांति से पहले का ईरान मुक्त, प्रगतिशील समाज था। कट्‌टरपंथियों के कब्जे के बाद आज दमनकारी राज्य बन गया है। मुक्त लोकतांत्रिक समाज की जगह धर्म को चुनने पर पाकिस्तान भी प्रभावित रहा है। मध्ययुगीन दौर में ईसाई धर्मयुद्धों ने अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचाया है। तालिबान के अधीन अफगानिस्तान आर्थिक संकट में है। जहां भी धर्म हावी हुआ, वहां अर्थव्यवस्थाएं और समाज नष्ट हुए।

कोई कह सकता है कि हिन्दू धर्म अलग है और सहज रूप से श्रेष्ठ है। हालांकि यह धर्म की सीख या ग्रंथों के बारे में नहीं है। देश तब प्रभावित होता है, जब एक समाज न्याय, स्वतंत्रता, समानता, अवसर, इंफ्रास्ट्रक्टर, अर्थव्यवस्था जैसे मूल्यों से ऊपर धर्म को रखने लगता है। जब धर्म हावी होता है तो राजनेता प्रगतिशील एजेंडा की बजाय धार्मिक एजेंडा अपनाने पर सराहे जाते हैं। यह फिसलन भरी डगर है, जहां अंतत: कट्‌टरवाद का कब्जा हो जाता है। भले ही हम हिन्दू इस पल के हकदार हैं, लेकिन हमें इसे हदें पार नहीं करने देना चाहिए।

इंसान जैविक रूप से ही प्रजातीय या जातिगत होता है। ‘हमारे जैसे लोगों’ से संबंध बढ़ाना और ‘हमसे अलग लोगों’ के प्रति विमुखता हमारी अंदरूनी प्रवृत्ति है। यह आदिम ‘कबायलीवाद’ या जनजातीयता हमें जंगलों में सुरक्षित रखती थी। हालांकि यह आधुनिक देश, खासतौर पर भारत को चलाने में बाधा है।

भारत तथाकथित ‘कबीलों’ से भरा है। यहां किसी भी देश से ज्यादा संस्कृतियां, भाषाएं, धर्म हैं। अगर हम देश को कबीलों और जनजातियों के आधार पर चलाएंगे तो कभी सुशासन और अर्थव्यवस्था बढ़ाने पर ध्यान नहीं दे पाएंगे। अंग्रेजों के जाने पर आधुनिक भारत की परिकल्पना काफी बेतरतीबी से हुई थी।

पूर्वी व पश्चिमी पाकिस्तान को काटकर अलग देश बनाना ही बताता है कि यह बहुत सहज योजना नहीं थी। हालांकि आधुनिक भारत की परिकल्पना में एक मुख्य गुण था- धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र, जहां सभी बराबर थे। अंग्रेज आधुनिक लोकतंत्र बनाने के लिए अदालतें, संसद, कार्यकारिणी व नौकरशाही जैसे संस्थान छोड़ गए थे। ये संस्थान आज भी कुछ सबसे आधुनिक राष्ट्रों में मौजूद हैं। खुशकिस्मती से हमने भी इन्हें सहेज कर रखा है। अगर हम सिर्फ धर्म की परवाह करेंगे और इन संस्थानों की रक्षा नहीं करेंगे तो आधुनिक राष्ट्र बनने का मौका गंवा सकते हैं।

यह हिन्दू पल हो सकता है। लेकिन अगर हम सोचते हैं कि इसका अर्थ किसी और धर्म को भारत में उसकी हैसियत (बतौर सेकंड क्लास नागरिक) दिखाना है, तो हम समानता, न्याय व एकता को नष्ट कर देंगे, जो प्रगतिशील राष्ट्र के लिए जरूरी है। और जो सोचते हैं कि यह सब सरकार के बारे में है, तो दोबारा सोचें। अंतत: यह लोगों के बारे में है। राजनेता वही करते हैं, जो लोग उनसे चाहते हैं। इस हिन्दू पल का आनंद लें, लेकिन भारत को भी अक्षुण्ण रखें।

हम हिन्दू क्या चाहते हैं?
भारत का लोकतंत्र अभी खतरे में नहीं है। हालांकि सुई थोड़ी हिन्दू प्रभुत्व की ओर बढ़ी है। अगर यह सुई और ज्यादा बढ़ी तो यह समय है कि हम नतीजों के प्रति सजग हो जाएं। हम हिन्दू ज्यादा क्या चाहते हैं? किसी भी कीमत पर हिन्दुओं का प्रभुत्व? या शायद हमारे धर्म को सम्मान लेकिन साथ में आधुनिक लोकतंत्र की भारत की नींव को भी बरकरार रखना?

चेतन भगत
(लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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