समाज में ब्राह्मण ही नेतृत्वकारी, प्रगतिशील !

0
275

पता नहीं इस समय यह लिखना चाहिए कि नहीं! समय बहुत खराब है। मगर फिर सोचा कि जब समय को खुद यह कहानी कहनी पड़ रही हो तब आप उसे लिपिबद्ध करने की जिम्मेदारी से कैसे मुंह चुरा सकते हैं? और फिर मैं यह पहली बार नहीं लिख रहा हूं। मैंने 15 साल पहले भी लिखा था कि भारतीय समाज में ब्राह्मण नेतृत्वकारी भूमिका में रहा है और मैंने तब यह भी लिखा था कि इसका कारण भारतीय जाति व्यवस्था में उसका सबसे अधिक प्रगतिशील होना है। कृपया फिर से ध्यान दें कि मैं पूर्णता नहीं लिख रहा हूं कि केवल गंगा पवित्र नदी है। मेरा मानना हैं कि भारत की सभी नदियों में गंगा सबसे प्रवाहमान, जीवनदायी है। बाकि हर नदी का अपना प्रवाह है लेकिन इन सबमें गंगा का सबसे ज्यादा! कोई नाराज न हो लेकिन भारत में जाति एक सच्चाई है। इससे मुंह मोड़ने की कई कोशिशें हुईं मगर यह सच्चाई हर बार और ज्यादा मुखर होकर सामने आई है। इस समय देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जो मुद्दा सबसे ज्यादा सरगर्म है वह है ब्रह्म चेतना सम्मेलनों का। राज्य में जगह-जगह ब्राह्मण सम्मेलन हो रहे हैं। और इनमें ब्राह्मण खुद को छला हुआ या उपेक्षित बता रहे हैं।भाजपा सरकार ने अपने ब्राह्मण विधायकों से पूछा बताते है कि उनके समाज में क्या नाराजगी है? 2017 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य के ब्राह्मणों ने भाजपा का इकतरफा साथ दिया था। लेकिन आज कांग्रेस के साथ मायावती भी यह आरोप लगा रही हैं कि राज्य में ब्राह्मण खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। कांग्रेस और मायावती दोनों का ब्राह्मण प्रेम यूं ही नहीं उमड़ रहा। कांग्रेस का नेतृत्व हमेशा ब्राह्मणों के हाथ में रहा और ब्राह्मण भी राम मंदिर आंदोलन से पहले तक कांग्रेस के साथ रहे। भाजपा ने पहले बहुत कोशिश की अपने साथ ब्राह्मणों को लाने की।

1957 के आम चुनाव में अटलबिहारी वाजपेयी को एक साथ तीन जगह से चुनाव लड़वाया। तीनों यूपी की सीटें थीं। लखनऊ, बलरामपुर और मथुरा। इनमें से दो पर वे हारे और बलरामपुर से जीते थे।केन्द्र में भाजपा के पहले प्रधानमंत्री बनने वाले वाजपेयी भाजपा और उससे पहले जनसंघ के कितने बड़े खेवनहार रहे यह बताने की जरूरत नहीं है। न ही यह बताने की जरूरत है कि उनकी इस सफलता में उनका भाजपा के दूसरे नेताओं के मुकाबले ज्यादा उदार और नए विचारों के साथ सामंजस्य बिठाने का गुण होना प्रमुख कारण था। प्रगतिशीलता अपने आप में वह गुण है जो सबको सहज आकर्षित कर लेती है। पंडित नेहरू से वाजपेयी के और वाजपेयी से नेहरू के प्रभावित होने का एक बड़ा कारण नए विचार, भाषा औरशैली थे। तो भारतीय राजनीति की वह जो प्रगितशीलता थी और प्रगतिशील तत्व थे उन पर पिछले कुछ सालों से प्रतिक्रयावाद हावी होने लगा। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से जैसा यूपी में देखने को मिल रहा है प्रतिक्रियावाद, कट्टरपन के अन्तरविरोध तेजी से सामने आने लगे। इस के बहुत सारे परिणामों में एक ब्राह्मणों की यह भावना है कि सरकार और प्रशासन में उन्हें उचित हिस्सेदारी नहीं मिल रही। इसी को एक नया एंगल कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद ने वे आंकड़े जारी करके दिया है जिसमें उन्होने कई दर्जन ब्रह्म हत्याओं की बात कही हैं। तभी उत्तरप्रदेश की सुगबुगाहट से भारतीय राजनीति में फिर से ब्राह्मणों की केन्द्रीय भूमिका उभरती लगती है। लेख के शुरूआती हिस्से में जहां इस विषय पर 15 साल पहले लिखने का जिक्र किया था उस समय भी राजनीतिक कारणों से ब्राह्मण नेतृत्वकारी भूमिका में आए थे।

“तिलक तराजू और तलवार !” का नारा देने वाली बसपा ने “ब्राह्मण शंख बजाएगा हाथी पीछे आएगा” का नारा देकर पूरा राजनीतिक मूड, सोच, विमर्श दिया था। मायावती के ब्राहम्ण को अपने मूल जनाधार दलित से आगे चलाने में कोई दिक्कत नहीं थी। वह अल्पसंख्यक समुदाय भी जो उस समय मायावती के साथ आया था उसे भी कोई परेशानी नहीं थी। इसके कारण में ही ब्राह्मण की केन्द्रीय और नेतृत्वकारी भूमिका का जगजाहिर पक्ष छुपा है। भारत की जाति व्यवस्था किसी से छिपी नहीं है। इसमें राजनीतिक तौर पर बड़ा परिवर्तन पिछले तीन दशकों में आया। जहां मंदिर-मस्जिद से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ वहां मंडल से नए जातीय समीकरण बनना शुरू हुए। दलित राजनीति और उसके साथ पिछड़ा राजनीति शुरू हुई। यहां सबसे महत्वपूर्ण यह रहा कि कुछ समुदाय स्थिर रहे और कुछ तेज गति बदलते हुए। गतिशील समुदायों में ब्राह्मण सबसे आगे रहा। साथ ही लचीला भी। मायावती ने इसको समझा। 2004 – 05 में मुलायम शासन काल में जब दलितों पर अत्यचार बढ़ने की घटनाएं हो रहीं थी तब उन्होंने एक नई सोशल इंजीनियरिंग की। दलित-ब्राह्मण गठजोड़ बनाया। इसके पीछे बड़ा सीधा और स्पष्ट सामाजिक कारण था। वह थी हमारे गांवों की संरचना। उत्तर भारत के गांवों में कहीं किसी जाति के लोग ज्यादा हैं तो कहीं किसी जाति के। लेकिन ऐसा कोई गांव नहीं होगा जिसमें दलित न हों और दो चार घर पंडित के न हों। पंडित संख्या में गांवों में कम हैं मगर पढ़े लिखे होने की वजह से गांव के सभी मामलों में उनकी कोई न कोई भूमिका रहती है। मायावती ने इसको राजनीतिक रूप से भुनाया। उनका राजनीतिक अनुभव था कि गांवों में दलितों के हित कई जातियों से टकराते हैं मगर ब्राह्म्णों से नहीं। साथ ही तेजी से आर्थिक ताकत बन रहे ओबीसी के लोग दलितों को अपने साथ लेकर चलने में इच्छुक नहीं है। सामाजिक रूप से वे अपने उच्च जाति बोध से मुक्त नहीं हो पाते। इसी तरह राजपूत समुदाय के साथ भी दलित सहज अनुभव नहीं करते हैं।

ऐसे में मायावती का दलित ब्राह्मण फार्मूला सुपर हिट रहा। 2007 में पहली बार वे पूर्ण बहुमत लेकर आईं। इसी बिन्दु पर उस स्थापना को ठीक से समझा जा सकता है जहां ब्राहम्ण को भारतीय जाति व्यवस्था में सबसे प्रगितशील जाति माना जाता है। दलित सामाजिक व्यवस्था में सबसे नीचे का स्थान वाला और ब्राहम्ण सबसे उपर माने जाना वाला। लेकिन सामाजिक बदलाव का दौर और राजनीतिक जरूरत को देखते हुए ब्राह्मण को उसके साथ आने में कोई दिक्कत नहीं हुई। उसने कई सीढ़ी नीचे उतरकर दलित का हाथ पकड़ा। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि मुलायम सिंह या अखिलेश यादव एक सीढ़ी उतरकर भी दलितों के साथ खड़े नहीं हो पाए। प्रगतिशीलता राजनीतिक अर्थों में यहीं है कि किसी भी नए सामाजिक समीकरण के साथ जाने से कोई परहेज नहीं करना। यहां ज्यादा विस्तार देना उद्देश्य नहीं है। इसलिए राजनीति के अलावा किसी और क्षेत्र का जिक्र नहीं कर रहे। साथ ही एक सार्थक बहस हो न कि किसी पर कीचड़ उछालने वाली इस लिए तुलनात्मक रूप से कोई बात नहीं कर रहे।धर्मों की तुलना में हमने देखा कि नफरत फैली है। और उसके बाद भी धर्म एकता का आधार नहीं बन पाए। भारत में तो अभी यह नया प्रयोग शुरू हुआ है। मगर दुनिया में कहीं भी एकता के दूसरे कारण महत्वपूर्ण रहे धर्म नहीं। मगर जाति इन सबसे अलग हटकर एक खालिस भारतीय सच्चाई है। 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव ने एक प्रोग्राम में सोनिया गांधी के सामने मुझसे कहा था कि कांग्रेस नहीं मानेंगी मगर हम जाति के आधार पर ही बिहार में भाजपा को हराएंगे। दरअसल भारत में डि क्लास होने से ज्यादा मुश्किल डि कास्ट होना है। और यह सिर्फ हिन्दू जातियों पर ही लागू नहीं होता। मुसलमानों, सिखों और अन्य धर्मों पर भी उतना ही लागू होता है। इसमें जो सबसे ज्यादा सफल हो वही सबसे बड़ा प्रगतिशील हो सकता है। ब्राह्म्ण बाकि जातियों के मुकाबले जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं इस डि कास्ट होने और नए मूल्यों को अपनाने में सबसे आगे रहता दिखता है। और यहीं चीज उसे वापिस बार बार केन्द्रीय भूमिका में लाती रही है।

शकील अख्तर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here