समस्या सिर्फ किसान की नहीं है!

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देश के कई राज्यों के किसान इस कड़ाके की ठंड़ में प्रदर्शन कर रहे हैं और दिल्ली की सीमा पर डटे हैं तो ऐसा बताया जा रहा है, जैसे केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानून, किसानों की अपनी समस्या हैं, जिसका समाधान वे सरकार से चाहते हैं। कुछ लोग इसे और संकीर्ण दायरे में बांधते हुए यह संकेत दे रहे हैं कि समस्या सिर्फ पंजाब और हरियाणा के कुछ किसानों की है। इसे और छोटा बनाने या इसकी साख बिगाड़ने वाला यह प्रचार भी किया जा रहा हैं कि यह पंजाब के आढ़तियों और वहां की कांग्रेस सरकार द्वारा प्रायोजित आंदोलन है, जिसके पीछे खालिस्तान की ताकतें भी लगी हैं। अब सबकी अपनी श्रद्धा और समझदारी है, जिसके हिसाब से वह किसानों के आंदोलन को देख-समझ रहा है।

परंतु असल में यह सिर्फ किसानों की या पंजाब-हरियाणा के किसानों की समस्या नहीं है, बल्कि देश की समस्या है। केंद्र सरकार ने जो तीन कानून बनाए हैं, वे खेती-किसानी के साथ-साथ देश की पारिस्थितिकी और देश की खाद्य सुरक्षा तीनों को संकट में डालने वाले हैं। ये कानून सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का अधिकार छीनने या मंडियों में अनाज बेचने या नहीं बेचने से नहीं जुड़े हैं, बल्कि ये कानून किसानों को खेती से निकाल कर उनको मजदूर बनाने की दशकों से चल रही साजिश को आगे बढ़ाने वाले हैं। एमएसपी का मामला तो इसका एक पहलू है, जो एक कानून से जुड़ा है। लेकिन संविदा पर खेती और आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव के दो और कानून भी तो हैं, जिन पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए जो नहीं हुई है!

असल में यह सिर्फ अभी का तात्कालिक मामला भी नहीं है, जो यह आसानी से सुलझ जाएगा। सरकार ने कोरोना वायरस की महामारी में आपदा को अवसर बनाते हुए बहुत सोच समझ कर ये कानून बनाए हैं। सबसे पहली समस्या तो वहीं से शुरू हुई, जब इन्हें अध्यादेश के रूप में लागू किया गया और बाद में बिना किसी चर्चा के लगभग जोर जबरदस्ती संसद से पास कराया गया। अगर सरकार की मंशा ठीक होती या वह खुले दिन से किसानों के मसले पर विचार करने को तैयार होती तो इतनी जबरदस्ती के साथ इन कानूनों को पास नहीं कराया जाता। सरकार ने जबरदस्ती तीनों कानून पास कराए हैं, इसलिए तय मानें कि वह इसमें कोई खास बदलाव नहीं करने जा रही है। उसके हाथ बंधे हुए हैं और कहने की जरूरत नहीं है किसकी वजह से हाथ बंधे हुए हैं!

अगर सरकार प्रदर्शन कर रहे किसानों को संतुष्ट करना चाहे तो उसके लिए यह काम दो मिनट का है। आंदोलन कर रहे ज्यादातर किसान सिर्फ एक बात समझ रहे हैं। वे चाहते हैं कि मंडियों में एमएसपी पर अनाज बेचने की इजाजत हो। सरकार कह रही है कि उसने एमएसपी की व्यवस्था खत्म नहीं की है, बस अनाज मंडियों से बाहर भी किसानों को अनाज बेचने की इजाजत दे दी है। आंदोलन कर रहे किसानों का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ यह चाहता है कि सरकार कानून में बदलाव करके यह जोड़ दे कि एमएसपी से कम कीमत पर कहीं भी अनाज की खरीद-बिक्री नहीं होगी। एमएसपी से कम कीमत पर अनाज की खरीद-बिक्री को गैरकानूनी बनाने का प्रावधान अगर कानून में जोड़ दिया जाए तो किसान संतुष्ट हो जाएंगे।

पर यह पूरी समस्या का सिर्फ एक पहलू है। यह बहुत छोटा पहलू है, हालांकि हैरानी की बात है कि अगले एक-डेढ़ साल में किसानों की आय दोगुनी करने का चमत्कार करने का दावा कर रही सरकार यह छोटी समस्या भी नहीं सुलझा रही है।

केंद्र के बनाए तीन कृषि कानूनों की असली समस्या कांट्रैक्ट फार्मिंग यानी संविदा पर खेती कराने वाले बिल और आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करके कारोबारियों व उद्योगपतियों को मनचाही मात्रा में अनाज का भंडारण करने की इजाजत देने वाले कानून से है। इस कानून के लागू होने के दो-तीन महीने के भीतर ही जरूरी चीजें की कीमतें जिस तरह से बढ़ने लगी हैं वह सबको दिख रहा है। खाने-पीने की चीजों की खुदरा महंगाई दर में बढ़ोतरी की चिंता में ही भारतीय रिजर्व बैंक ने नीतिगत ब्याज दरों में बदलाव का फैसला टाला है। केंद्रीय बैंक को अंदेशा है कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई और बढ़ेगी। ऐसे में अगर नीतिगत ब्याज दरों में कटौती की गई तो मुद्रास्फीति की दर बहुत बढ़ सकती है।

सो, अगर इससे महंगाई बढ़ती है तो सवाल है कि यह समस्या सिर्फ किसान की कैसे हुई? यह तो आम आदमी की समस्या है। खाने-पीने के चीजों के भंडारण की सीमा खत्म की गई है, जिससे अनाज के दाम बढ़ने लगे हैं तो इसका असर तो व्यापक समाज पर हो रहा है! इतनी सरल सी बात आखिर लोगों को समझ में क्यों नहीं आ रही है कि सरकार ने इस कानून के जरिए देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है? यह लोगों को क्यों नहीं दिख रहा है कि देश के दो सबसे बड़े कारोबारी किस तेजी से खाने-पीने की चीजों के उत्पादन और उनकी बिक्री के बाजार में घुस रहे हैं, किस पैमाने पर भंडारण की व्यवस्था कर रहे हैं और कैसे विलय व अधिग्रहण के जरिए खुदारा कारोबार पर कब्जा कर रहे हैं? आखिर इस काम में उनकी इतनी दिलचस्पी कैसे पैदा हुई है?

एमएसपी और आवश्यक वस्तु अधिनियम कानून में बदलाव के बाद तीसरा कानून संविदा पर खेती का है। यह कानून देश के किसानों को खेती से निकाल कर उनको मजदूर बना देने वाला है। देश में करीब 90 फीसदी किसान डेढ़-दो एकड़ की जोत वाले हैं, जिनके लिए पहले से खेती करना मुश्किल काम हो गया है। कृषि की लागत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि वे खुद ब खुद खेती से बाहर हो रहे हैं। सरकारें स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की बातें करती हैं पर किसी ने इसकी पहल नहीं की है। सो, किसान पहले से परेशान है। उसे अब एक आसान विकल्प दिया जा रहा है कि वह कारोबारियों-उद्यमियों के साथ करार करे और अपनी ही जमीन पर मजदूर की तरह काम करे, जिसके बदले में उद्यमी उसको उसकी सेवाओं की कीमत देगा।

पारंपरिक किसान का इस तरह से खेती के काम से बाहर होना कई तरह के संकट को न्योता देने वाला है। सबसे पहले तो गांवों की पूरी सामाजिक संरचना प्रभावित होगी। कॉरपोरेट फार्मिंग में ज्यादा खेत मजदूर की जरूरत नहीं रह जाएगी। इससे गांवों से पलायन तेज होगा। देश की मौजूदा आर्थिक हालत को देखते हुए यह समझना मुश्किल नहीं है कि किसी भी सेक्टर में इतनी क्षमता नहीं है कि वह खेती-किसानी से हटे सब लोगों को रोजगार दे सके। सो, बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ेगी। पारंपरिक किसान के खेती से बाहर होने का एक बड़ा खतरा यह है कि कॉरपोरेट फार्मिंग में कंपनियों का ध्यान सिर्फ मुनाफा कमाने पर केंद्रित होगा। वे पारंपरिक फसलों की बजाय नकदी और कमाई करने वाली फसलों की खेती पर फोकस करेंगी। इससे जमीन की गुणवत्ता खराब होगी और ग्रीन हाउस गैसेज का उत्पादन बढ़ेगा, जिससे अंततः पूरी पारिस्थिति प्रभावित होगी। यानी सरल शब्दों में कहें तो केंद्र के बनाए तीन कृषि कानून प्रदर्शन कर रहे किसानों से ज्यादा देश के 130 करोड़ लोगों के जीवन, समाज और पारिस्थितिकी के लिए संकट हैं।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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