समस्याओं में उलझने की बचाया कई बार उससे हार कर निकल जाने भी समझदारी होती है

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अक्सर हमारे सफलता के रास्ते में कुछ परेशानियां ऐसी आ जाती हैं, जिनसे लड़कर जीता नहीं जा सकता। अगर लडऩे की ठान भी लें तो उसमें वक्त इतना लगता है कि आप अपने लक्ष्य से चूक जाएंगे। ऐसी समस्याएं अक्सर भौतिक ना होकर मानसिक होती हैं। कुछ लोग अपने तथ्यों से आपको टारगेट से दूर करने की कोशिश करते हैं। उनका अपना ईगो होता है। उन्हें ज्ञानी माना जाए। वे तब तक आपसे तर्क-कुतर्क करते रहते हैं, जब तक कि आप उसे मान ना लें। ऐसे में दो समस्याएं खड़ी हो जाती है, पहली अगर आप बहस में समय गंवाते हैं तो टारगेट से चूक सकते हैं, दूसरा अगर आप बिना तर्क किए आगे बढऩे की कोशिश करेंगे तो ये आपके मन में संदेह खड़ा कर देंगे। सुंदरकांड में इस समस्या का सटीक उपाय भगवान हनुमान ने दिया है। सुंदरकाण्ड में प्रसंग आता है हनुमानजी जैसे ही लंका के लिए चले सबसे पहले उड़ते हुए आंजनेय के सामने सुरसा नामक राक्षसी सामने आती है। इन्हें खाने के लिए उस राक्षसी ने अपना मुंह बड़ा करके खोला तो इन्होंने भी अपने रूप को बड़ा कर लिया।

फिर छोटे बनकर उसके मुंह में प्रवेश किया और बाहर निकल गए। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा। जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी हनुमानजी इसका दुगुना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया। इस आचरण से उन्होंने बताया कि जीवन में किसी से बड़ा बनकर नहीं जीता जा सकता। लघुरूप होने का अर्थ है नम्रता! जो सदैव विजय दिलाएगी। इस प्रसंग में जीवनप्रबंधन का एक और महत्वपूर्ण संकते है। हनुमानजी चाहते तो सुरसा से युद्ध कर सकते थे, लेकिन उन्होंने विचार किया मेरा लक्ष्य इससे युद्ध करना नहीं है, इसमें समय और ऊर्जा दोनों नष्ट होंगे, लक्ष्य है सीता शोध। इसे कहते हैं सहजबुद्धि (कॉमनसेंस)। समय और ऊर्जा बचाने का एक माध्यम शद भी हैं इसलिए जीवन में मौन भी साधा जाए। हनुमानजी सुरसा के सामने मौन हो गए थे। उसके ईगो के आगे छोटे हो गए।उसे संतुष्ट किया। फिर आगे बढ़ गए।

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