साख पर सवाल है। मीडिया बेहाल है। एक तरफ चैनलों पर कम खर्च का दबाव है। छंटनी है। तालाबंदी है। तो दूसरी तरफ़ मीडिया की दुर्दशा पर सेमिनारों, संगोष्ठियों और सार्वजनिक बहसों का अंबार है। मीडिया शिक्षण संस्थान अभी तक अध्ययन में गुणवत्ता पर अधिक गंभीरता नहीं दिखाते थे। लेकिन बीते एक बरस से ऐसे आयोजन लगातार मंथन कर रहे हैं। यह अच्छी बात है। समाज के किसी भी तबके से सही, कोई पहल तो हुई। तीस-चालीस साल से इस तरह के आयोजनों में शिरक़त कर रहा हूँ। इसलिए धीरे-धीरे ऐसे कार्यक्रमों के क्रमिक विकास का साक्षी हूं। कह सकता हूँ कि अतीत के सेमीनार भावुक राष्ट्रवाद और आदर्शवाद की चाशनी में लिपटे होते थे, जो थोड़ा बहुत तात्कालिक चिंताओं पर आंसू बहाने के बाद एक दो संकल्पों के साथ संपन्न हो जाते थे।
बाज़ार का दबाव, संपादक नाम की संस्था का क्षरण, अपनी आचार संहिता का निर्माण,पार्टी प्रवक्ता या भौंपू बनकर पत्रकारिता करना और मीडिया में पनपते अंदरूनी भ्रष्टाचार जैसे विषय मीडिया उपक्रमों और शिक्षण संस्थाओं की चिंता का सबब कम ही बनते थे। हालिया दौर में छोटे क़स्बों से लेकर मंझोले शहरों और प्रादेशिक राजधानियों तक में आम दर्शक , मीडिया के जानकार और छात्र जब सीधे सीधे मीडिया के तमाम रूपों पर सवाल उठाते हैं तो राहत सी मिलती है। लेकिन दूसरी ओर पत्रकारिता में दाखि़ल हो रहे नए चेहरों पर चिंता की लक़ीरें भी नजऱ आती हैं। उनके सवालों में यह भाव भी छिपा होता है कि क्या ऐसे माहौल में अपने सरोकारों की रक्षा करते हुए पत्रकारिता कर पाएंगे? यक़ीन मानिए कि इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मेरी भी आत्मा को दु:ख होता है।
ठीक वैसे ही, जैसे बचपन में माता-पिता से प्राप्त संस्कारों में सच बोलने, ईमानदारी का पालन करने, भ्रष्ट आचरण से बचने और नैतिक मूल्यों की हिफाज़त करने की नसीहतें होती थीं। लेकिन बड़े होने पर अहसास हुआ कि दुनिया वैसी नहीं है, जो माता-पिता की नसीहतों में होती थी। इसके बाद भी आज तक हमारी पीढ़ी इन सरोकारों की रक्षा करती आई है। लेकिन मौजूदा दौर सचमुच भयावह है। स्वभाव से निराशावादी बिलकुल नहीं हूं, लेकिन इन सेमिनारों में इस नस्ल के ज़ेहन से निकले अनेक यक्ष प्रश्नों का जवाब मेरे पास भी नहीं होता। इसी वजह से सवाल खड़ा होता है कि क्या इन सेमिनारों और गोष्ठियों से पत्रकारिता की गुणवत्ता पर कोई असर पड़ता है और यह भी कि ऐसे शैक्षणिक आयोजन करने वाले संस्थान इस तरह के कार्यक्रमों के लिए परिपक्व हैं? कहीं वे, पत्रकारिता संस्थान इनके बहाने अपने अन्य कारोबारों का हित संरक्षण करते हुए मार्केटिंग तो नहीं कर रहे? जब सब कुछ एक बड़ी मंडी में तब्दील हो गया है तो पत्रकारों से तालमेल करके अपने बिजनेस स्वार्थ क्यों न सिद्ध किए जाएं।
अगर यह धारणा इसके पीछे है तो हम एक ख़तरनाक़ रास्ते पर चल पड़े हैं। इससे बचने का हुनर पत्रकारों को आ सकता था बशर्ते वे उसी हमाम में न कूद पड़ते। यदि हमारी चिंताएं जायज़ हैं तो मेरा निवेदन है कि कृपया इस तरह के आयोजनों में भागीदारी बढ़ाइए। पत्रकारिता को शैक्षणिक विस्तार दीजिए। आम तौर पर अधिकतर पत्रकार शैक्षणिक आयोजनों में भागीदारी से बचते हैं। जो खुद संप्रेषण की दुनिया के महारथी हैं, वे अपनी आने वाली पीढ़ी से संवाद के अवसरों को टालने की कोशिश करते हैं। यह एक घातक मानसिकता है। मत भूलिए कि आज देश के अधिकांश मीडिया शैक्षणिक संस्थानों के अध्यापन विभाग में कार्यरत सम्मानित प्राध्यापकों के पास पत्रकारिता का कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं होता। वे पच्चीस -तीस बरस पुराने पाठ्यक्रमों के आधार पर नई फसल तैयार कर रहे हैं। इसलिए अगर मीडिया में रोजग़ार के नए अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं तो कृपया मीडिया शिक्षण में जाइए।
राजेश बादल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)