ये विचार आते ही नारद जी मततमा उठे। अपना क्रोध भला प्रभु पर क्या निकालते, सोचा इस भक्त को ही शाप दे डालूं। यह विचार कर नारद जी ने जल अपनी अंजुलि में लिया ही था कि प्रभु ने साक्षात प्रकट होकर नारद जी का हाथ पकड़ लिया और बोले, “इतने अधीत मत होओ… वत्स! थोड़ी प्रतीक्षा और करो”
अब रात हो चली थी। उस सफाईकर्मी ने अपना कार्य समाप्त किया। स्नान करके उसने हाथ जोड़ कर उस अदृश्य परमात्मा का ध्यान करके कहा, “आपकी बड़ी कृपा हुई दीनदयाल। आपकी कृपा से ही मैं वह कार्य पूरा कर पाया जो आपने मेरे लिये निश्चित किया है। मुझे शक्ति देते रहना, जिससे मैं अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करता रहूं।”
प्रभु नारद जी से बोले, “इस संसार को चलाने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्य करने आवश्यक हैं। इसमें कुछ कार्य बहुत सुगम हैं, कुछ कार्य अत्यन्त कठिन। किन्तु सबसे कठिन कार्य सफाई का कार्य है। यदि संसार में निरन्तर सफाई न हो तो यह संसार नरक बन जाए। मैंने सभी के लिए कोई न कोई कार्य निश्चित किया है। सफाई का यह कठिन कार्य भी तो किसी को करना ही है न!”
नारद जी गर्दन झुकाए सुन रहे थे। बोलते भी क्या। “वत्स, सन्यास लेकर अपने को कर्म बन्धन से अलग कर, मेरा स्मरण करते रहाना सच्ची भक्ति नहीं है। यह तो जीवन से भागना हुआ। एक ओर वह जीवन में आने वाली मुसीबतों का सामना न कर, उनसे बच निकलना चाहता है और दूसरी ओर सन्यास लेकर केवल अपने आप की मुक्ति भी चाहता है। यह तो एकदम उसका निकम्मा और घोर स्वार्थी होना ही हुआ न! वह सच्चा भक्त कहां हुआ?”
“सच्चा भक्त तो वह है जो जीवन में आने वाली हर मुसीबत से लड़ता है और प्रभु द्वारा किसी भी कार्य को छोटा-बड़ा नहीं मानता, क्योंकि सभी कार्य प्रभु के कार्य हैं, उसी के द्वारा सौंपे गए कार्य है, चाहे वह सफाई कर्म हो और चाहे कार्यालय में कुर्सी पर बैठकर किया जाने वाला कर्मं। प्रभु द्वारा सौंपे गए कर्त्तव्य को पूरा करने वाला अलग से उसके किसी फल की इच्छा नहीं करता।”
यह कहकर प्रभु अंतर्ध्यान हो गए।
नागद जी गर्दन झुकाए जीवन के तत्व को समझ रहे थे। वे ध्यान मग्न ही रहना चाहते थे पर उन्हें ध्यान आया कि उन्हें तो ऋषियों व मुनियों की सभा में उनके प्रश्न का समाधान करने जाना है।
वे नारायण-नारायण करते हुए सभा की ओर चल दिए।
साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)
लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण
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