सरकार का कहना है कि तीनों कृषि कानूनों के कारण किसानों को अपनी उपज ‘बाज़ार’ में जिसे चाहे, जहां चाहे और लाभकारी दामों पर बेचने की ‘आज़ादी’ मिल जाएगी। सवाल यह है कि इस दावे में जो ‘बाज़ार’ है, वह किस किस्म का है, और उसे जो ‘आज़ादी’ देने का भरोसा दिया जा रहा है, उसका किरदार क्या है? क्या इस बाज़ार की संरचना उसी बाज़ार जैसी है जिसमें हम टीवी, फ्रिज, कम्प्यूटर, कार या अन्य छोटे-बड़े उपभोक्ता सामान खरीदते हैं? क्या जिस बाज़ार की सरकार चर्चा कर रही है, उसमें किसान की फसल के दाम उसी तरह से तय होते हैं जिस तरह से कारखाने में बनने वाले माल के दाम निर्धारित किए जाते हैं? जिस तरह से इन उपभोक्ता चीज़ों की ‘सेल’ लगती है, क्या उसी तरह से किसानों की उपज की भी आने वाले समय में ‘सेल’ लग सकती है? किसानों के लिए सरकार के पास जिस बाज़ार की योजना है, क्या उसमें ऐसा अनिवार्य न्यूनतम मुनाफा किसानों को भी मिल सकता है? इन सभी सवालों का केवल एक ही जवाब हैनहीं। पहली बात तो यह है कि किसान दुनिया में कहीं भी फैक्ट्री मालिकों की तरह बाज़ार की मांग को देखकर फसल नहीं उगाते। सभी किसानों की फसल एक निश्चित वक्त पर ही पकती और बिकने के लिए तैयार होती है।
वे उसे फैक्ट्री के माल की तरह दूरदराज़ के इलाकों में नहीं भेज सकते। वे फसल पकते ही उसे स्थानीय बाज़ार में लाने के लिए मजबूर होते हैं। कारखाने में बनी वस्तुओं की लागत, टैक्स, विज्ञापन, दूसरे ऊपरी खर्चों और आगे चलकर सेल में बेचे जाने की परिस्थिति को मिलाकर उसके ऊपर मुनाफा लगाकर ‘मार्क- अप’ बनाया जाता है। इससे हर हालत में मुनाफे की गारंटी मिलती है। खेत में उपजे माल की प्रकृति अलग होती है। इसमें छोटा और गरीब किसान (जो इस देश में 80त्न है) कम उपज होने पर भी आमदनी घटने के खतरे का सामना करता है, और अधिक उपज हो जाने पर भी दामों के तेज़ी से गिरने के कारण उसकी आमदनी अक्सर शून्य के बराबर हो जाती है। केवल बड़ा किसान ही इतना सक्षम होता है कि अपनी अधिक उपज की स्थिति में फसल को अपने भंडार में रोककर दाम दुरुस्त होने का इंतज़ार कर सके। छोटा किसान ऋ ण और फसल के चक्र के साथ मंडी के साथ बंधे रहने के लिए मजबूर है।
क्या अपने तीन कानूनों के ज़रिये सरकार जिस ‘बाज़ार’ का निर्माण करके किसानों को ‘आज़ादी’ देना चाहती है, क्या वह बाज़ार किसानों को उनकी इन समस्याओं से मुक्ति दिला पाएगा? भारत सरकार के दो पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु और रघुराम राजन मानते हैं कि ये कानून ऊपर से तो दुरुस्त लगते हैं, लेकिन बारीकी से जांच करने पर साफ हो जाता है कि इनमें छोटे और गरीब किसानों के हितों की सुरक्षा का बंदोबस्त नहीं किया गया है।आखिरकार इस ‘बाज़ार’ में किसान को कॉरपोरेट पूंजी के साथ मोलभाव करना पड़ेगा। ज़ाहिर है कि कॉरपोरेट कंपनी किसान से सीधा संपर्क नहीं करेगी। वह आज के आढ़तियों और कुछ नव-नियुक्त एजेंटों के ज़रिये किसान की उपज को जमा करवा कर खरीदेगी। आज जब कमीशनखोरी से रुपया कमाने वाले आढ़तिये के हाथों किसान लुट जाता है, तो इस बदली हुई सूरत में उसे लुटने से कौन रोकेगा? डर यह है कि शुरुआती कड़वे तजुर्बे के बाद छोटे किसान अपनी ज़मीन बड़े किसानों को बेचने के बारे में सोचने लगेंगे। छोटी जोतें बड़ी जोतों में समाने लगेंगी। इस तरह ‘बाज़ार’ और ‘आज़ादी’ के बीच फंसा छोटा किसान अपना वजूद खोता चला जाएगा।
अभय कुमार दुबे
( लेखक सीएसडीएस, दिल्ली में प्रोफेसर हैं ये उनके निजी विचार हैं)