निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले में चार दोषियों को हुई फांसी की सजा पर अमल को लेकर चल रहे नाटकीय घटनाक्रम से कुछ जरूरी सवाल उठे हैं। सबसे पहला सवाल वहीं सनातन है कि आखिर हमारी अपराध-न्याय प्रणाली में या बुनियादी खामी है, जिसका फायदा उठाकर गुनहगार बचते रहते हैं? जो किसी तरह सजा पा जाते हैं वे भी कैसे सजा पर अमल टलवाते रहते हैं? यह मामूली बात नहीं है कि निर्भया की मां ने सार्वजनिक रूप से कहा कि दोषियों के वकीलों ने उन्हें चुनौती दी थी कि अदालत की ओर से जारी डेथ वारंट पर अमल नहीं हो पाएगा। और सचमुच एक नहीं दो डेथ वारंट पर अमल नहीं हो सका। सोचें, यह उस अपराध के मामले में हो रहा है, जिस अपराध ने इस देश की सामूहिक चेतना को सर्वाधिक तीव्रता से झकझोरा था। निर्भया के साथ हुए वीभत्स अपराध ने समूचे देश को आंदोलित किया था। उसके विरोध में आंदोलन इतना तीव्र था कि पूरा देश की विरोध प्रदर्शन का अखाड़ा बन गया था। उस मामले की सुनवाई के लिए विशेष अदालत बनी थी और सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस ने खुद उसकी शुरुआत की थी।
निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने आरोपियों को फांसी की सजा पर मुहर लगाई है पर घटना के सात साल से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी सजा पर अमल नहीं हो पाया है। इस घटना की टाइम लाइन देखकर लगता है कि अपराध न्याय प्रणाली में सुधार की कितनी जरूरत है। यह घटना 16 दिसंबर 2012 की है। फास्ट ट्रैक अदालत ने आरोपियों को सितंबर 2013 में दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई। एक साल से भी कम समय में निचली अदालत ने सजा सुना दी। इसके बाद छह महीने के भीतर मार्च 2014 में हाई कोर्ट ने भी निचली अदालत के फैसले की पुष्टि करते हुए दोषियों की मौत की सजा पर मुहर लगा दी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में समय लगा पर मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने भी चार दोषियों की फांसी की सजा को मंजूरी दे दी। सोचें, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मई 2017 से फरवरी 2020 तक यानी करीब तीन साल से सजा पर अमल नहीं हो पा रहा है। भारत में निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक करोड़ों मामले लंबित हैं। अलग अलग कारणों से मुकदमों की सुनवाई में देरी होती है।
पुलिस की सुस्त जांच, गवाहों का मुकरना, सबूत की कमी, अदालतों में बुनियादी ढांचे का अभाव, जज की कमी जैसे दर्जनों कारण हैं, जिनकी वजह से मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। पर जिस मामले में सजा पर अंतिम मुहर लग चुकी है उसमें दोषियों को इतने लूपहोल कैसे मिल रहे हैं, जिससे वे सजा से बच रहे हैं? फांसी की सजा होनी चाहिए क्या नहीं, यह अलग बहस का विषय है पर अगर देश में फांसी की सजा है और सुप्रीम कोर्ट ने किसी दोषी के कृत्य को बर्बर बताते हुए फांसी की सजा सुनाई है तो उस पर अमल क्यों नहीं होना चाहिए? इस मामले में केंद्र सरकार ने बहुत स्पष्ट स्टैंड लिया है और इस केस के बहाने की सरकार को इससे जुड़ा कानून बदलने की पहल करनी चाहिए। चारों दोषियों के दूसरे डेथ वारंट पर रोक के बाद नाराज केंद्र सरकार हाई कोर्ट पहुंची और रविवार को इस मामले में विशेष सुनवाई हुई, जिसमें केंद्र की ओर से सॉलिसीटर जनरल ने कई बहुत वैध सवाल उठाए।
उन्होंने दो टूक अंदाज में कहा कि दोषी कानून दांवपेंच का फायदा उठा कर जान बूझकर ऐसी साजिश कर रहे हैं, जिससे सजा टलती रही। उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे दोषी एक-एक कर समीक्षा याचिका दायर करते रहे, फिर सुधारात्मक याचिका दायर करते रहे, फिर दया याचिका डाली, फिर दया याचिका की समीक्षा याचिका लगाई। इसमें संदेह नहीं है कि दोषियों को सारे कानूनी विकल्प आजमाने की इजाजत मिलनी चाहिए पर उसकी आड़ में ऐसी छूट नहीं मिलनी चाहिए कि वे सजा पर अमल अनंत काल तक टलवाते रहे हैं। उनके इस दांवपेंच की वजह से ही केंद्र सरकार को तेलंगाना में सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले को आरोपियों के मुठभेड़ में मारे जाने की घटना का परोक्ष रूप से समर्थन करना पड़ा। सॉलिसीटर जनरल ने कहा कि मुठभेड़ में पांच आरोपियों के मारे जाने पर लोगों ने सिर्फ पुलिस के लिए जश्न नहीं मनाया, बल्कि इंसाफ का जश्न भी मनाया।
सुशांत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)