संसद में शोर और चुप्पी दोनों खतरनाक

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संसद में शोर जारी है। इस सत्र में अब तक कीमती 100 से ज्यादा घंटे शोर में चले गए। गणित लगाएं तो संसद सत्र के एक मिनट की कार्यवाही का खर्च लगभग 2.6 लाख रुपए आता है। इस मान से तो लगभग सवा सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हो गया। इस तरह सदन में हंगामा होना न सिर्फ करदाताओं के पैसे का नुकसान है, बल्कि लोकतंत्र के लिए भी अच्छा नहीं है। क्या वाकई सदन चलाने वालों की ये दलीलें सार्थक हैं? हो भी सकती हैं और नहीं भी। क्योंकि दलीय राजनीति का गणित यह है कि विपक्ष में रहकर जो दल सरकार को कोसते हैं, सत्ता में आने पर वही दल विपक्ष को कोसने लगते हैं।

दरअसल, संसद में शोर नहीं…सिर्फ मुश्किल और तार्किक सवालों की गूंज होनी चाहिए। ये लोकतंत्र का वो मंदिर है, जहां हिसाब-किताब पूछा जाता है। जब हिसाब-किताब पूछा जाएगा और जवाब देने वाला जवाब देने से बचेगा तो शोर स्वाभाविक है। लेकिन हंगामा कोई विकल्प नहीं है। सार्थक बहस ही उद्देश्य होना चाहिए। जनता सिर्फ सत्ता पक्ष को नहीं चुनती, वो विपक्ष को भी चुनती है। अगर सत्तापक्ष की जिम्मेदारी है काम करना तो विपक्ष को उन कामों की निगरानी करने, उन पर सवाल पूछने के लिए ही जनता द्वारा चुना जाता है। सही मायनों में यही स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी भी है।

यूं संसद में शोर नया नहीं है। पहली बार 26 नवंबर 1947 को जब 197 करोड़ रुपए का पहला बजट पेश किया गया, तो उस पर भी 4 दिन तक हंगामा हुआ था। क्योंकि इसमें 171 करोड़ की आय और करीब 25 करोड़ का बजट घाटा शामिल था। बोफोर्स घोटाला सामने आने के बाद विपक्ष ने पूरे 45 दिन तक संसद के दोनों सदनों का बहिष्कार किया। 2001 में तहलका खुलासे के खिलाफ 17 दिनों तक संसद नहीं चली थी। 2010 में टू जी घोटाले की जांच के लिए जेपीसी की मांग पर पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे में डूबा रहा।

कभी सुखराम के कथित भ्रष्टाचार पर, कभी तेलंगाना गठन, कभी ललित मोदी-विजय माल्या तो कभी कोयला घोटाला, आदर्श घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला और इसी तरह पाकिस्तान के मुद्दे पर, नियंत्रण रेखा पर होने वाली गोलीबारी रोकने में सरकार की नाकामी के मुद्दे पर और दूसरे कई मुद्दों पर भाजपा ने जबरदस्त विरोध किया था। जो पूरी तरह सही ही था। क्योंकि उस वक्त देश सत्ता पक्ष से जवाब चाहता था और भाजपा विपक्षी पार्टी होने के नाते उस भूमिका का पालन कर रही थी।

आज भाजपा सत्ता में है और विपक्ष भी अपनी भूमिका को निभा रहा है तो इसे गलत कैसे ठहराया जा सकता है? दरअसल, केंद्र में चाहे शक्तिशाली सत्ता हो या कमजोर, विपक्ष हमेशा पूरी ताकत के साथ सवाल पूछने को तैयार रहता है। लोकतंत्र की इसी खूबसूरती को नेहरू से लेकर इंदिरा और अटलजी, मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक ने देखा है।

आज किसान आंदोलन, पेगासस जासूसी, कोरोना से मौतें, ऑक्सीजन की कमी, अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, महंगाई जैसे कई मुद्दे हैं। जिन पर सवाल होने चाहिए। सार्थक बहस होनी चाहिए। विपक्ष मुश्किल सवाल पूछे। सरकार उचित तर्क सामने रखे। आखिर, जनता ने दोनों को सार्थक बहस के लिए चुना है। सत्ता और विपक्ष के विचार विपरीत हो सकते हैं, लेकिन दोनों का अंतिम लक्ष्य प्रजा के प्रति जिम्मेदारी ही होना चाहिए।

देवेंद्र भटनागर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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