संसदीय मर्यादा निभाना भी जरुरी

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इन दिनों संसदीय मर्यादा को लेकर कुछ सवाल उठे हैं। एक सवाल राहुल गांधी ने उठाया है। लगातार दो दिन उन्होंने पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं दिए जाने का मुद्दा उठाया और सदन से बाहर बयान दिया। स्पीकर ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा कि सदन की कार्यवाही के बारे में सदन के बाहर सवाल उठाना ठीक नहीं है। पर यह एक अलग मसला है। स्पीकर ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछे जाने के हक में हैं इसलिए चाहते हैं कि सवाल-जवाब जल्दी-जल्दी हो। पर संसदीय मर्यादा को लेकर इससे बड़े कई और सवाल हैं, जिनकी ओर ध्यान देने की जरूरत है, खास कर सरकार को। ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार अपने भारी-भरकम बहुमत के दम पर संसद को अपने हिसाब से चलाना चाहती है। वह विपक्ष की भूमिका को धीरे धीरे कमतर करते जाने के पक्ष में है। तभी वह इस बात की परवाह नहीं करती कि सदन में विपक्ष के सांसद हैं या नहीं। विपक्षी सांसद वाकआउट कर रहे हैं तो उन्हें समझाने, उनसे बात करने और उनके उठाए सवालों को सुनने का कोई जतन नहीं हो रहा है। सरकार ने ऐसे संसदीय कार्यमंत्री रखे हैं, जिनका संसदीय प्रबंधन का अनुभव ज्यादा व्यापक नहीं है। पहले ऐसे अनुभवी नेताओं को संसदीय कार्यमंत्री बनाया जाता था जो विपक्ष के साथ सद्भाव बना सकें और तालमेल कर सकें।

भाजपा की ओर से भी हमेशा वरिष्ठ और लोकप्रिय नेता यह जिम्मेदारी संभालते रहे हैं। अपने भारी -भरकम बहुमत के दम पर विपक्ष की आवाज को भी दबाने का प्रयास हो रहा है। यह किसी रणनीति के तहत हो रहा है या अनजाने में, इसका पता नहीं है पर यह हकीकत है कि सत्तापक्ष के सांसद विपक्षी नेताओं को बोलने नहीं देते हैं। उनके बारे में सदन के अंदर अनाप-शनाप टिप्पणियां होती हैं। ऐसे लोगों के बारे में मुद्दे उठाए जाते हैं, जो सदन के सदस्य नहीं होते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी किताब ‘संसद के तीन दशक’ में लिखा है कि जब वे 1957 में पहली बार सांसद बन कर आए थे तो बहुत दिन तक कुछ नहीं बोला था। एक दिन उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खुद उनसे कहा कि ‘अरे नौजवान तुम कुछ क्यों नहीं बोलते हो’। इस पर वाजपेयी ने कहा था- बोलने के लिए सिर्फ वाणी की जरूरत होती है पर चुप रहने के लिए वाणी और विवेक दोनों की जरूरत होती है। नेहरू इससे काफी प्रभावित हुए थे और चाहते थे कि वाजपेयी सदन में हर मसले पर बोलें। पर अब वाजपेयी की पार्टी नहीं चाहती है कि विपक्ष के सांसद सदन के अंदर ज्यादा बोलें। संसदीय मर्यादा को लेकर सरकार का यह रवैया सिर्फ संसदीय कार्यमंत्रियों की नियुक्ति या विपक्ष की आवाज दबाने जाहिर नहीं हो रहा है, बल्कि कई और बातों से जाहिर हो रहा है।

जैसे 17वीं लोकसभा बने हुए दस महीने होने वाले हैं और अभी तक लोकसभा का उपाध्यक्ष नियुक्त नहीं किया गया है। आमतौर पर उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को दिया जाता है। हालांकि इस सरकार ने यह चलन भी बदल दिया है। यूपीए-दो की सरकार ने भाजपा के कडिय़ा मुंडा को उपाध्यक्ष बनाया था। पर 16वीं लोकसभा में नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने प्रति सद्भाव रखने वाली अन्ना डीएमके के नेता थंबी दुरैई को उपाध्यक्ष का पद दिया था और 17वीं लोकसभा में अभी तक यह पद खाली है। सरकार सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को यह पद देने की बजाय अपने अनुकूल नेता तलाश रही है। इस सरकार ने लगातार दूसरी लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल को मुख्य विपक्षी दल का दर्जा भी नहीं दिया है। इसके लिए इस तकनीकीकारण को आधार बनाया गया है कि कांग्रेस ने दस फीसदी सीटें नहीं जीती हैं। हालांकि दस फीसदी सीटों की अनिवार्यता को लेकर कई तरह की राय है। पर अगर सरकार चाहती तो इसके बावजूद कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल का दर्जा दे सकती थी, जैसा कि दिल्ली में पिछली विधानसभा में भाजपा के तीन विधायक होने के बावजूद अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को मुख्य विपक्षी दल का दर्जा दिया था। पर ऐसा लग रहा है कि सरकार को ऐसी किसी संसदीय परंपरा या मर्यादा की चिंता नहीं है।

उसे अपने फैसलों के रास्ते में कोई अवरोध नहीं चाहिए, इसलिए मुख्य विपक्षी दल या नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाया गया। ध्यान रहे पिछले 70 सालों में बने कुछ नियमों और कुछ परंपराओं की वजह से कई मामलों में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका भी अहम होती है। सरकार एक तरफ तो भारी – भरकम बहुमत के दम पर लोकसभा में मनमाने तरीके से काम चला रही है और दूसरी ओर राज्यसभा की अनदेखी कर रही है क्योंकि वहां उसे बहुमत नहीं है। हालांकि अब किसी तरह से बहुमत का जुगाड़ वहां भी किया जा रहा है। पर कई मामलों में सरकार ने राज्यसभा को बाईपास करके कानून बनाए। विधेयकों को मनमाने तरीके से धन विधेयक घोषित किया गया और सिर्फ लोकसभा से पास करा करके उसे कानून बनाया गया। इससे जुड़ा एक मामला सुप्रीम कोर्ट में भी चल रहा है। सरकार ने संसदीय समितियों को भी महत्व देना बंद कर दिया है। पहले विधेयक पेश होने के बाद संसद की स्थायी समितयों को भेजे जाते थे।

जिन विधेयकों पर विवाद होता था उन्हें प्रवर समिति को भेजा जाता था और कई बार दोनों सदनों की साझा प्रवर समिति बनती थी। पर अब यह पंरपरा भी धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। सरकार अपने विधेयकों को स्थायी समिति या प्रवर समिति में भेजने को अपना अपमान मान रही है। विपक्षी पार्टियों के नेताओं की अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों में अगर कोई विषय उठता भी है तो वहां भी सरकार अपने बहुमत के दम पर विपक्ष की आवाज को दबा रही है। समितियों के अध्यक्ष भी सरकार के बहुमत के आगे मजबूर हो रहे हैं। लोक लेखा समिति में ऐसा देखने को मिला है। संसदीय मर्यादा और पंरपराओं को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि सरकार विपक्ष के साथ सद्भाव बनाए, उनकी राय को तरजीह दे, कानून निर्माण की प्रक्रिया में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाए और दशकों के अनुभव से जो परंपराएं बनी हैं उनका पालन करे।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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