संकट के समय सब्र की ढाल

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यह वक्त ऐसा है कि कोरोना के खौफ में लॉकडाउन के चलते पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था डांवाडोल है, तब लेदेकर सरकारों से ही आस होती है। इस कतार में करीब, अमीर, नौकरीपेशा, किसान या फिर व्यापारी सबकी एक जैसी स्थिति उनके अपने मानदंडों के हिसाब से है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। गरीब, जो दो वक्त की रोटी हाड़ तोड़ मेहनत के बलबूते जुटाता है उसकी पीड़ा भी लॉकडाउन के कारण है। काम-धंधा बंद है, क्या करें परिवहन सेवाएं बंद हैं तो गांव भी नहीं जा सकता और शहरों में उसे खाने के पैकेट भी सुबह, दोपहर और शाम नहीं मिल पाते ऐसी स्थिति में अधपेट
रहने का दंश भी झेलना पड़ता है। सवाल यह भी है कि किराया न चुका पाने के कारण बहुत से प्रवासी मजदूर सपरिवार सड़कों पर आ गये हैं। आश्रय केन्द्रों की भी तो अपनी सीमा है, सबकों नहीं खपाया नहीं जा सकता।

छोटे-मोटे धंधे से अपनी शारीरिक मेहनत के बूते जुड़े और जीवन यापन करने वालों की लबी फेहरिस्त है। वैसे भी कल्याणकारी कार्यक्रमों को लम्बे समय तक चलाये रखने की भी अपनी एक सीमा है। अब अमीरों का जिक्र करें तो नई आमद बंद है, जमापूंजी खर्च हो रही है। उद्योग चला रहे हैं तो कार्मिकों को पगार भी बिठाकर देनी पड़ रही है। इसीलिए जो नौकरीपेशा हैं, विशेष रूप से प्राइवेट सेटर में उन्हें छटनी की आशंका सता रही है। किसान की दिक्कत यह है कि उसे कटाई, जोताई-बोआई के लिए इस वक्त पैसों की भारी किल्लत है। सरकारी मंडियों में पर्याप्त खरीद नहीं हो पा रही और जितनी हो भी रही है उसके भुगतान की स्थिति को लेकर तस्वीर साफ नहीं है। जहां तक व्यापारी वर्ग की बात है तो लोगों के जेब में पर्याप्त तरलता नहीं है और लॉकडाउन के चलते सोशल डिस्टेंसिंग के माहौल में लंबे वक्त के लिए दुकाने खुलने की अनुमति नहीं है। ऐसे में एक अनिश्चितता इस बड़े तबके की है। साथ ही इससे जुड़े कर्मचारियों के सामने भी अर्थसंकट गहरा है।

जो सरकारी नौकरी में हैं उन्हें जरूर एक आश्वस्ति बोध है लेकिन सवाल उधर भी है कि संकट से समय रहते ना उबरे तो परेशानी खड़ी हो सकती है। प्रतियोगी छात्र-छात्राओं के सामने भी यह अपरिहार्य यथास्थिति कोरोना के चलते उत्पन्न हुई है, उनका नौकरी पाने का सपना भी खटाई में पड़ गया है। खासकर उन लोगों के सामने बड़ी दिक्कत है, जो उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां इस तरह का विलब उनकी पात्रता पर ग्रहण लगा सकता है। तो यह एक यथार्थपरक तस्वीर है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यहां साथ ही स्पष्ट होना भी जरूरी है कि इस मौजूदा स्थिति का यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष इससे निपटने के क्रम में उस अंजाने अवसर का भी है, जो लोगों के भीतर नवाचार की भूख भी पैदा कर रहा है। कहा भी गया है कि घटाटोप अंधेरे में छिपा होता है उजाले का पता। तो वास्तव में यह वक्त धीरज को जगाने और उसे संवारने का है। भारत सरकार हो या राज्य सरकारें इन स्थितियों के बीच जरूर लोगों को राहत मिले इस तरफ सचेत हैं। पिछले दिनों रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की भी कोशिश इसी दिशा में रही है।

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