संकट और शराब का विमर्श

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इन दिनों देश में कोरोना वायरस की चिंता के साथ-साथ शराब का विमर्श चल रहा है। आमतौर पर इसका विमर्श बहुत हल्का-फुल्का होता है पर इस बार इसके कई पहलू जाहिर हो रहे हैं और कुछ पहलू तो बेहद गंभीर हैं। इन दिनों पूरे देश में चल रहे शराब विमर्श के मुख्य रूप से तीन हिस्से हैं। सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक-साहित्यिक। हर पहलू से इस विमर्श को आगे बढ़ाया जा रहा है। कोरोना संकट के समय घरों में बैठे लोगों की रचनात्मकता अलग अपने चरम पर है और शराब को लेकर जैसा सृजनात्मक काम हो रहा है वह साहित्य-संस्कृति के स्वर्णिम दिनों की याद दिलाने वाला है।इस विमर्श से देश की प्राथमिकता भी जाहिर हुई है। पूरे देश में कहीं भी स्कूल-कॉलेज खोलने की मांग नहीं उठी और न किसी ने यह कहा कि मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-गिरिजाघर नहीं खुले तो गजब हो जाएगा। लेकिन शराब की दुकानें खुलवाने के लिए ऑनलाइन भी मुहिम छिड़ी थी और सरकार तो जैसे इसके लिए तैयार ही बैठी थी।

बहरहाल, सबसे पहले शराब के आर्थिक विमर्श पर नजर डालते हैं। इसी जगह व्यास जी ने अपने कॉलम ‘अपन तो कहेंगे’ में पांच मई को लिखा था ‘आपको पता है शराब से सरकारों को कितनी कमाई होती है?15 से 30 प्रतिशत के बीच। जैसेदिल्ली सरकार को पिछले साल शराब से 14 प्रतिशत रेवेन्यू याकि साढ़े पांच हजार करोड़ रुपएमिले। मध्य प्रदेश सरकार को 9-10 हजार करोड़ रुपए, यूपी सरकार को 26 हजार करोड़ रुपए,महाराष्ट्र सरकार को 24 हजार करोड़ और राजस्थान को आठ हजार करोड़ रुपए याकि राज्योंको कुल 2.48 लाख करोड़ रुपए याकि 15 से 30 प्रतिशत शराब की बिक्री पर टैक्स से कमाईहोती है। कह सकते हैं कि 40 दिन की तालाबंदी ने शराबियों को तड़पाया तो राज्य सरकारों कोभी भूखा-प्यासा बनाया। तभी केरल से पंजाब, पश्चिम बंगाल से राजस्थान सभी तरफ से केंद्रसरकार से कहा गया कि आप वायदे अनुसार जब पैसा नहीं भेज रहे हैं तो कम से कम शराबके ठेके की हमारी कमाई के नल को तो खोलें। पैसा नहीं होगा तो वायरस से कैसे लड़ेंगे?’

लोगों ने इस विमर्श को आगे बढ़ाने में अपनी अपनी तरह से भूमिका निभाई है। जो लोग शराब की दुकानों के आगे लाइन में खड़े हैं, उनकी अपनी भूमिका है। लाइन में खड़े शराबियों पर फूल बरसा रहे लोगों की अपनी भूमिका है। दुकानदारों की अलग भूमिका है और जो लोग घर में बैठे रचनात्मकता दिखा रहे हैं उनकी अलग भूमिका है। सो, जो बात व्यास जी ने आंकड़ों के सहारे कही वहीं बात सोशल मीडिया में व्यंग्य के तौर पर अलग तरह से कही जा रही है। जैसे किसी ने लिखा ‘कोई भी सरकार के भरोसे न रहे, सरकार खुद शराबियों के भरोसे है’। सोचें, लोगों का हौसला बढ़ाने वाली यह कितनी बड़ी बात है और सरकार से उम्मीद लगाए बैठे लोगों का इससे कैसे मोहभंग होगा। इसी तरह किसी दूसरे ने लिखा ‘लोगों ने तो 40 दिन बरदाश्त कर लिया पर सरकारों से बरदाश्त नहीं हो सका’। ऐसे ही कोई शराबियों को कोरोना वॉरियर्स घोषित करने की मांग कर रहा है तो कोई यह बता रहा है कि शराबी के पैर इसलिए लड़खड़ाते हैं क्योंकि उसके कंधों पर देश की अर्थव्यवस्था का भार होता है।

सचमुच अगर शराब और पेट्रोल-डीजल न हों या दूसरी गैर जरूरी चीजों की खरीद न हो तो देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा? यह गंभीर आर्थिक विमर्श का विषय है। देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था की हालत आज इतनी खराब इसलिए है क्योंकि लोग शराब, पेट्रोल-डीजल या दूसरी गैर जरूरी चीजें नहीं खरीद रहे हैं। यह हकीकत है कि दुनिया भर के लोग जरूरत की चीजें यानी खाने-पीने की बुनियादी चीजें और दवा आदि तो खरीद ही रहे हैं। इसके बावजूद अगर अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा हुआ है तो इसका मतलब है कि देश और दुनिया की आर्थिकी गैर जरूरी चीजों की खरीद-बिक्री से ही चलती है।

शराब का सामाजिक-पारिवारिक विमर्श इससे ज्यादा गंभीर है। जब से देश में लॉकडाउन लागू हुआ है तब से घरेलू हिंसा और बच्चों पर अत्याचार की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। यह तब हुआ है, जब शराब पूरी तरह से बंद थी और दवा के रूप में भी लोगों को उपलब्ध नहीं थी। शराबखोरी के बाद इस किस्म की हिंसा में निश्चित रूप से बढ़ोतरी होगी। इससे एक बड़े तबके में घरों में बंद महिलाओं, बच्चों का जीवन दूभर बनेगा। एक दूसरा खतरा भी है। संयुक्त राष्ट्र संघ का आकलन है कि लॉकडाउन की अवधि में दुनिया भर में 70 लाख अनचाहे गर्भ की संभावना है। शराबखोरी के बाद इसमें भी बढ़ोतरी होगी क्योंकि शराब अंततः इंसान को उच्छशृंखल बनाती है और अच्छे-बुरे का भेद खत्म करती है। इससे सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन कमजोर होगा और समाज-परिवार के मान्य नियमों की भी धज्जियां उड़ेंगी। समाज में हर किस्म के अपराध भी बढ़ेंगे।

साहित्य और संस्कृति में तो पहले से ही शराब की अहम भूमिका रही है। ज्ञात इतिहास के सबसे महान कवियों में से एक असदुल्ला खां गालिब का एक किस्सा है। उनको मुगल दरबार से वजीफा मिलता था। वे वजीफे का पैसा मिलते ही मेरठ जाते थे और सेना की कैंटीन से महीने भर की शराब खरीद कर लाते थे। किसी ने पूछा कि मिर्जा आप ऐसा क्यों करते हैं तो गालिब का जवाब था- अल्लाह ने रोटी देने का वादा किया है, शराब का नहीं। सो, शराब अपने पैसे से खरीद लेते हैं। बिल्कुल यहीं अंदाज अपने देश के शराबियों का है। उन्हें अपने पैसे से शराब खरीदनी है। बाकी राशन का वादा तो सरकारों ने किया हुआ है।

बहरहाल, गालिब की तरह नहीं, पर अपनी अपनी तरह से लोग शराब को लेकर साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल हुए हैं। शराब को लेकर जितने भी गाने हिंदी फिल्मों में बने हैं या मधुशाला सहित जितनी भी कविताएं लिखी गई हैं वो सब इन दिनों सोशल मीडिया में देखने-सुनने को मिल रही हैं। लोगों की अपनी रचनात्मकता भी चरम पर है। तभी एक-एक पंक्ति के अच्छे व्यंग्य पढ़ने को मिल रहे हैं। सब तो यहां नहीं लिखा जा सकता है पर कुछ बेहतरीन नमूने पेश हैं। एक ने लिखा ‘अब जाकर पता चला है कि देश भूखा नहीं, प्यासा था’। दूसरे ने लिखा ‘एक सज्जन ने शराबी को नसीहत दी कि ठीक से चलो नहीं तो नाली में गिर जाओगे, इस पर शराबी ने कहा- हम देश की अर्थव्यवस्था चलाते हैं और तुम हमें चलना सीखा रहे हो’। तीसरे ने लिखा ‘सरकार की कृपा से अब लोगों के बीच अंग्रेजी में बातचीत शुरू हो जाएगी’। अगले ने लिखा ‘शराब की दुकानों पर खड़ी भीड़ की फोटो जब सेटेलाइट के जरिए अमेरिका और चीन को दिखी तो वहां खलबली मच गई कि कहीं भारत ने कोरोना वायरस की दवा तो नहीं खोज ली है’। एक ने सरकार की मार्मिक अपील बताई, जिसमें कहा गया था ‘शराब पीने के बाद सीधे घर जाएं, कोई भी चीन से लड़ने नहीं जाएगा’। शराब को लेकर सैकड़ों की संख्या में मीम भी बने, जिसमें सबसे मार्मिक दो पुलिसवालों और एक शराबी का है। एक पुलिस वाला शराबी को मारने के लिए लाठी उठाता है तो दूसरा उसे रोकते हुए कहता है ‘ना पगले ना, अगले महीने की तनख्वाह ये ही दिलाएगा’।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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