शुजाउद्दौला : कान के कच्चे भी थे और शक्की भी

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अवध के ज्यादातर नवाबों के बारे में किस्सागो यही बताते हैं कि अपनी अजीबोगरीब सनकों के चकर में वे असर ‘पल में तोला, पल में माशा और पल में रत्ती’ की गति को प्राप्त हुए रहते थे। तिस पर तुनुकमिजाजी कभी उनके कोप को कृपा में बदल देती थी और कभी कृपा को कोप में। कई बार तो उनका कोपभाजन बने शख्स को यह तक पता नहीं चल पाता था कि आखिर उससे गुस्ताखी क्या हुई? तीसरे नवाब शुजाउद्दौला भी कुछ ऐसे ही थे। खासकर 22 अटूबर, 1764 को बसर की ऐतिहासिक लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों मिली अपमानजनक शिकस्त ने उनका मनोविज्ञान बुरी तरह बिगाड़ दिया था। वे शकी भी हो चले थे और कान के कच्चे भी। इससे वाकिफ दरबारी उन्हें अपनी ‘सुनी-सुनाई’ व ‘हवा-हवाई’ में फंसाते और मजे लेते थे। खुन्नसी वजीरों में रोज-रोज मची रहने वाली चिख-चिख ने उन्हें अपने-पराए की पहचान करने लायक भी नहीं ही छोड़ा था।

कभी कोई वफादार उन्हें साजिशिया दिखने लगता और कभी किसी साजिशिए पर प्यार उमड़ आता। ऐयाशी का पुराना मर्ज था कि फिर भी बेकाबू हुआ रहता। जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, इसके चलते उन्होंने एक के बाद एक कई वफादार खो दिए। बेहद सामान्य परिवार से आने वाले सीतापुर स्थित खैराबाद के बेनी भी इनमें से एक थे, जिनकी वफादारी से प्रसन्न होकर उन्होंने 1755 में अपना दीवान और 1759 में ‘महाराजा’ का खिताब देकर अपना नायब बनाया था। जरा-से शक की बिना पर उन्होंने बेनी को विश्वासघाती करार देकर पहले जेल में सड़ाया, फिर बेरहमी से उनकी आंखें फोड़वा दीं। इसका भी लिहाज नहीं किया कि 13 मई, 1764 को बसर कूच के वक्त यही बेनी उनके दाहिने हाथ थे। युद्ध के मोर्चे पर मिली हार के बाद भी उन्होंने अपनी वफादारी अप्रभावित रखी थी और ईस्ट इंडिया कंपनी से सुलह-समझौते के प्रयासों में लग गए थे।

इन प्रयासों को ऐतिहासिक इलाहाबाद संधि तक पहुंचाने में कंपनी के सैन्य व असैन्य अफसरों से उनके संपर्क बहुत काम आए थे। बात यह थी कि उनसे खुन्नस रखने वाले कुछ दरबारियों ने यह कहकर उनके विरुद्ध शुजाउद्दौला के कान भर दिए कि बसर में उन्हें बेनी के कारण ही नीचा देखना पड़ा। वहां बेनी की सेना ने नवाब की सेना के बगल ही मोर्चा लगा रखा था, लेकिन गोरे सैनिक नवाब की सेना पर कहर बनकर टूटे तो वह कोई प्रतिकार नहीं कर पाई थी। इसके मद्देनजर उक्त दरबारियों का दावा था कि बेनी ईस्ट इंडिया कंपनी से मिले हुए थे और शुजाउद्दौला को रणभूमि में ही गिरफ्तार करा देना चाहते थे। बेनी का दुर्भाग्य कि शुजाउद्दौला ने न इस बाबत उनसे कुछ पूछा, न किसी जांच-पड़ताल की जरूरत समझी। एक हजार घुड़सवारों के साथ उनके लखनऊ स्थित ठिकाने पर जा पहुंचे और भरपूर स्वागत व अशर्फियां नजर किए जाने के बावजूद अकड़े रहे।

बेनी की सेना की शक्ति देखकर उन्हें लगा कि मुकाबला हुआ तो उनके घुड़सवारों के लिए उससे पार पाना कठिन होगा तो छल पर भी उतर आए। उन्होंने-शिकार खेलने की इच्छा जताई, बेनी के साथ एक ही हाथी पर सवार होकर बाहर निकले और मौका पाते ही उनकी मुश्कें कसवा दीं। बेनी के उसके बाद के दिन फैजाबाद की जेल में ही कटे। दूसरी ओर एक हजार छह सौ घोड़ों व एक सौ पचास हाथियों समेत उनकी सारी संपत्ति जब्त कर लेने के बावजूद शुजाउद्दौला के शक की आग ठंडी नहीं हुई। बेनी के एक मित्र ने अंग्रेज गवर्नर जनरल को अर्जी भेजी कि वे बेकसूर राजा पर बिना वजह अत्याचार कर रहे हैं जिसे रोके जाने की जरूरत है, तो गवर्नर जनरल ने इसको नवाब का घरेलू मामला बताकर उसमें किसी भी तरह के दखल देने से इनकार कर दिया। इससे साफ था कि न बेनी अंग्रेजों के आदमी थे, न ही उनकी उनसे मिलीभगत थी। फिर भी शुजाउद्दौला की आंखें नहीं खुलीं। उन्होंने इस डर से कि कहीं आगे अंग्रेज बेनी की मदद कर उन्हें जेल से छुड़वाकर किसी बड़े पद पर न बैठा दें, जेल में ही उनकी आंखें फोड़वा दीं।

कृष्ण प्रताप सिंह
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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